आगरा घराने की विलुप्त होती शास्त्रीय संगीत धरोहर

कुछ दिन पहले दक्षिण भारत में आयोजित एक शास्त्रीय संगीत कार्यक्रम में एक विद्वान ने मुझसे प्रश्न किया कि आगरा घराने की वर्तमान स्थिति क्या है, और कौन इसे संजो रहा है? मेरा उत्तर अज्ञानता और असहायता के बोझ से दबा हुआ था। यह प्रश्न एक बड़ी चिंता की ओर इशारा करता है कि कैसे हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत, विशेष रूप से आगरा घराना, आधुनिक समय में उपेक्षित हो रहा है।

आज की तेज़ रफ़्तार जिंदगी और तात्कालिक संतुष्टि की चाह ने युवा पीढ़ी को बॉलीवुड म्यूजिक, रैप, रीमिक्स और पंजाबी पॉप जैसे त्वरित पहचान दिलाने वाले संगीत की ओर खींच लिया है। इस बदलाव के कारण गहरी संगीत परंपराओं, जैसे आगरा घराने, के विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। धैर्य, एकाग्रता और समर्पण की आवश्यकता को समझने वाले कम होते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप, आगरा घराना, जो कभी अपनी बोल्ड और जटिल शैली के लिए मशहूर था, अब गुमनामी में खो रहा है।

Read in English: Agra Gharana, the vanishing heritage of classical music

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की कभी जीवंत प्रतिध्वनियां, विशेष रूप से प्रतिष्ठित आगरा घराना, उसी शहर में गुमनामी में खोती जा रही हैं जहां ये  इस क्षेत्र की समृद्ध संगीत विरासत का प्रतीक था। समर्पित संरक्षकों और उत्साही शिष्यों की अनुपस्थिति में, यह सदियों पुरानी परंपरा अब विलुप्त होने के कगार पर है। अपनी शक्तिशाली गायन तकनीकों और भावनात्मक रूप से भावपूर्ण प्रस्तुतियों के साथ कभी आगरा घराने को फैयाज खान और विलायत हुसैन खान जैसे दिग्गज उस्तादों ने पोषित किया था। लेकिन, आज यह मान्यता और समर्थन की कमी से जूझ रहा है।

युवा पीढ़ी, क्षणभंगुर वैश्विक रुझानों से मोहित होकर, संगीत परंपरा के इस खजाने से काफी हद तक अनजान बनी हुई है। त्योहारों, वित्तपोषण और संस्थागत समर्थन के माध्यम से इसे पुनर्जीवित करने और संरक्षित करने के लिए तत्काल प्रयासों के बिना आगरा घराना लुप्त होने का जोखिम उठा रहा है। यह एक ऐसे शहर में सांस्कृतिक शून्यता छोड़ रहा है जो कभी अपने भावपूर्ण ताल से गूंजता था।

चार सदी पुराने आगरा घराने के अंतिम प्रतिष्ठित प्रतिनिधि, उस्ताद अकील अहमद साहब ने किसी भी तरफ से कोई समर्थन न मिलने के कारण गरीबी में जीवन व्यतीत किया। अभी कोई भी ऐसा नहीं है जो आगरा घराने को अन्य धाराओं से अलग करने वाली सूक्ष्म बारीकियों और विविधताओं के बारे में एक भावुक गायक को प्रशिक्षित कर सके। लेकिन, संगीत शिक्षकों का कहना है कि पुरानी परंपराओं को संरक्षित किया जाना चाहिए क्योंकि वे हमारी संगीत विरासत का हिस्सा हैं। केवल जब हम पुराने घराने के संगीत को सीखते हैं और शास्त्रीय धाराओं में अच्छी पकड़ रखते हैं, तो हम संगीत के अन्य रूपों में अच्छा कर सकते हैं। युवा पॉप संगीत धाराओं की ओर बढ़ रहे हैं जो न तो आत्मा को संतुष्ट करती हैं और न ही इंद्रियों को सुकून देती हैं। 

हालांकि आगरा घराना आगरा में लोकप्रिय नहीं था, लेकिन पूरे भारत में इसके संरक्षक थे और कई शास्त्रीय गायक इसे जीवित रख रहे थे। नृत्य ज्योति कथक केंद्र की निदेशक डॉ ज्योति खंडेलवाल कहती हैं कि आगरा घराना अभी मरा नहीं है। इसके प्रशंसक और संरक्षक हर जगह हैं। लेकिन, आगरा के लोग समृद्ध परंपरा को संरक्षित करने और बढ़ावा देने के लिए कष्ट नहीं उठा रहे हैं, जो वास्तव में दुखद है।

आगरा घराने का जन्म शमरंग और सासरंग के प्रयासों से हुआ, जो मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल के दौरान रहने वाले दो राजपूत पुरुष थे। बाद में मुगल दरबार में गाने के लिए दोनों ने इस्लाम धर्म अपना लिया। माना जाता है कि वे ग्वालियर के मियां तानसेन के रिश्तेदार थे। उस्ताद फैयाज खान ने बाद में आवाज के उतार-चढ़ाव और आलाप और बंदिश के लयबद्ध पैटर्न के माध्यम से संगीत के रूप में कई बारीकियों को पेश किया। उस्ताद को उचित आगरा घराने की स्थापना का श्रेय दिया जाता है। संगीत का यह स्कूल राग के मधुर पहलू पर जोर देता है और अलंकरण से परिपूर्ण है। इस स्कूल के प्रसिद्ध गायकों में शराफत हुसैन खान, उस्ताद विलायत हुसैन खान 'आगरावाले', लताफत हुसैन खान, यूनुस हुसैन, विजय किचलू, ज्योत्सना भोले, दीपाली नाग और सुमति मुताटकर आदि शामिल हैं। उस्ताद फैयाज खान द्वारा प्रशिक्षित एक प्रसिद्ध स्वतंत्र गायक केएल सहगल थे। आगरा घराने की अद्वितीय बहुमुखी प्रतिभा को दर्शाते हुए इन गायकों ने ध्रुपद और ख्याल के अलावा ठुमरी, दादरा, होरी और टप्पा जैसी गायन की विभिन्न शैलियों का अभ्यास और पोषण किया है।

अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त संगीतज्ञ डॉ सदानंद ब्रह्मभट्ट बताते हैं कि कलाकारों में इसे अपने परिवार तक ही सीमित रखने का चलन इसलिए था ताकि कोई और इसे सीख न ले और उनकी गायकी अपने परिवार तक ही सीमित रहे। ऐसा चलन वर्षों तक चला।

वर्षों से संगीत साधना में लगे विद्वान पं. ब्रह्मभट्ट कहते हैं कि राग भैरव के स्वर सभी घरानों में एक जैसे हैं जो वर्षों से गाये जा रहे हैं, परंतु इन्हें प्रस्तुत करने की गायकी में भिन्नता है। यह अंतर अत्यंत सूक्ष्म होता है जिसे एक समझदार कलाकार ही समझ सकता है।

आजकल रिकॉर्डिंग का ज़माना है। सभी लोग एक दूसरे को सुनते हैं तो अब यह उतना प्रासंगिक नहीं रहा है। किसी घराने की गायकी चाहे वह ग्वालियर, दिल्ली, रामपुर, सहसवान, किराना, बनारस अथवा आगरा घराना हो, को आत्मसात करना एक दीर्घकालिक साधना एवं प्रक्रिया है जिसमें कमी आई है। अब किसी से एक दो राग सीखने से ही लोग उसे उस घराने का गायक कह देते हैं। इस शैली के प्रथम गायक नायक गोपाल के वंशज सुजान दास को अकबर ने इस्लाम अपनाने तथा हज करने के लिए कहा। जिससे वह हाजी सुजान ख़ान कहलाए।

हाजी सुजान खां को आगरा घराने का प्रवर्तक माना जाता है। इस घराने के प्रमुख गायक फ़ैयाज़ खां हुए जो 1932 में आगरा छोड़कर बड़ौदा चले गए। उनके बाद बशीर ख़ान और उनके दो पुत्र अक़ील अहमद ख़ान एवं शब्बीर अहमद खां ने इसे जारी रखा। इनके परिवार नाज़िम अहमद खां कोलकाता चले गए उनके पुत्र वसीम अहमद आईटीसी कोलकाता में हैं।

फैयाज खा साहब के बड़ौदा जाने के बाद आगरा में तब ग्वालियर घराने के तीन गुरु पं. गोपाल लक्ष्मण गुणे पं. रघुनाथ तलेगांवकर, पं. सीताराम व्यवहारे पधारे, जिन्होंने शास्त्रीय संगीत का प्रचार-प्रसार किया और कई शिष्यों को सिखाया। आजकल आगरा में इन तीनों विभूतियों के ही अर्थात् ग्वालियर की गायकी के सिखाए लोग हैं।

आगरा में निवास करने वालों में आगरा की गायकी सीखने वालों में वर्णाली बोस है जो यहां रहती हैं। बाक़ी वर्तमान में आगरा घराने के प्रमुख गायकों पं. अरुण कशालकर, वसीम अहमद ख़ान, अदिति कैकिनी उपाध्याय व भारती प्रताप इत्यादि शामिल हैं।

संगीत विशेषज्ञ मानते हैं कि आगरा विश्वविद्यालय को आगे बढ़कर ‘आगरा घराने’ को संरक्षित करने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए।



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