क्या भाजपा तलाशेगी नरेंद्र मोदी का विकल्प?


भारत की राजनीति एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी है, जहां हर निगाह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर टिकी है। क्या वह 75 साल की उम्र में स्वयं को पार्टी की उस 'अलिखित परंपरा' के हवाले करेंगे, जिसमें लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गजों ने मार्गदर्शक की भूमिका निभाई थी? या फिर मोदी उस लकीर को मिटाकर नए राजनीतिक मानदंड गढ़ेंगे?

सवाल सिर्फ उम्र का नहीं, बल्कि 2029 के चुनावी रण, भाजपा की रणनीति, और देश के नेतृत्व की दिशा का है। सत्ता के गलियारों में खामोशी है, लेकिन उसके भीतर भविष्य की गूंज साफ़ सुनाई दे रही है, मोदी के बाद कौन?

पिछले साल के इंडिया टुडे सर्वे के अनुसार, अमित शाह को 25 फीसदी समर्थन के साथ सबसे आगे माना जा रहा है, क्योंकि उनके पास संगठनात्मक दक्षता और आरएसएस का समर्थन है। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (19 फीसदी) मजबूत दावेदार हैं, पर आरएसएस की जड़ों की कमी उनकी राह में बाधा बन सकती है। नितिन गडकरी (13 फीसदी) और शिवराज सिंह चौहान (5.4 फीसदी) भी विकल्प हैं, लेकिन लोकप्रियता में शाह या योगी जितने मजबूत नहीं। यह भी संभव है कि मोदी 75 के बाद भी बने रहेंगे, क्योंकि कोई औपचारिक नियम नहीं है और उनके समर्थन में कई भाजपा नेता हैं। आरएसएस की भी भूमिका महत्वपूर्ण होगी, खासकर यदि मोहन भागवत 2025 में पद छोड़ते हैं। उत्तराधिकारी चयन में मोदी की विरासत, गठबंधन राजनीति और 2029 चुनाव रणनीति का संतुलन अहम रहेगा।

देश को एक ओर जहां मजबूत, स्थिर और प्रभावी नेतृत्व की आवश्यकता है, वहीं दूसरी ओर लोकतंत्र में संतुलन, जवाबदेही और खुली प्रतिस्पर्धा की मांग भी बढ़ रही है।

भारत इस वक्त विषम अंतर्राष्ट्रीय कुचक्र में फंसा दिखता है, खासतौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति  ट्रंप की षडयंत्री चालों के बाद। देश के अंदर ही विपक्ष कोई मौका नहीं छोड़ रहा है मोदी की गाड़ी को असंतुलित करने का। ऐसी परिस्थितियों में मोदी के अलावा कोई और नेता नहीं दिखता जो भाजपा सरकार की नैय्या 2029 के चुनावों में पार लगा सके।

इस बीच कुछ विरोधाभास स्पष्ट दिखाई देते हैं, जहां सरकारी नौकरियों में सेवानिवृत्ति की उम्र सीमा 58 से 60 वर्ष है, वहीं गवर्नर, न्यायाधीश, कुलपति और अन्य उच्च पदाधिकारी 65 वर्ष या उससे अधिक आयु तक पद पर बने रहते हैं। राजनीतिक पदों पर आयु की कोई औपचारिक सीमा नहीं है, क्योंकि राष्ट्रीय नेतृत्व की परंपराएं अक्सर अलिखित नियमों पर ही चलती रहती हैं। 

भाजपा की एक अलिखित परंपरा रही है कि 75 वर्ष की आयु पूरी कर चुके नेता सक्रिय राजनीति से संन्यास लेकर मार्गदर्शक की भूमिका निभाएं। इसी नियम के तहत आडवाणी, जोशी, सुमित्रा महाजन और नजमा हेपतुल्ला जैसे वरिष्ठ नेताओं को सम्मानपूर्वक पार्टी के मुख्य पदों से हटा दिया गया था। 

साल 2014 में सत्ता में आने के बाद भाजपा ने स्पष्ट कर दिया था कि 75 वर्ष से अधिक आयु के नेताओं को मार्गदर्शक मंडल में भेजा जाएगा। यह कोई महज औपचारिकता नहीं थी, बल्कि पार्टी अनुशासन और युवा नेतृत्व को आगे बढ़ाने की एक सोची-समझी रणनीति थी। मोदी ने स्वयं इस नियम को दूसरों पर लागू किया था। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में वानप्रस्थ की परंपरा का उल्लेख किया था, जिसमें 75 वर्ष की आयु के बाद व्यक्ति सक्रिय जिम्मेदारियों से हटकर सलाहकार की भूमिका निभाता है।

भारत की औसत आयु मात्र 28 वर्ष है, लेकिन देश की राजनीति आज भी वरिष्ठ नेताओं के हाथों में केंद्रित है। प्रौद्योगिकी, वैश्विक राजनीति, जलवायु परिवर्तन और आर्थिक बदलाव जैसे जटिल मुद्दों के लिए नए विचार और ऊर्जा की आवश्यकता है। ऐसे में युवा नेतृत्व को मौका देना समय की मांग है। 

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वेच्छा से राजनीति से संन्यास लेकर यह साबित किया था कि एक मार्गदर्शक भी नायक हो सकता है। यदि मोदी भी मार्गदर्शक मंडल में शामिल होते हैं, तो वह पार्टी को बिना उसकी स्वतंत्रता को प्रभावित किए अपने अनुभव और दृष्टि से लाभान्वित कर सकते हैं। 

भारत की युवा आबादी और बदलता वैश्विक परिदृश्य नए विचारों और गतिशील नेतृत्व की मांग कर रहा है। परंपरा और अनुभव को नकारना उतना ही खतरनाक है, जितना बिना आधार के केवल ‘नवीनता’ को प्राथमिकता देना। अतः नेतृत्व परिवर्तन का ऐसा मॉडल होना चाहिए जो अनुभव को मार्गदर्शन में बदले, नई ऊर्जा को केंद्र में लाए और लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थिरता बनाए रखें।



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