बारिश के देवता तो हुए मेहरबान, लेकिन पानी कहां गया...?


इस साल मॉनसून के समय पर आगमन ने पूरे भारत के किसानों के चेहरों पर खुशी ला दी। नदियां उफान पर रहीं, जलाशय लबालब भर गए, नहरों का जलस्तर उम्मीदों से ऊपर रहा। लेकिन, सितंबर तक जारी रही बारिश के बाद अब फिर हर साल की तरह पानी की कमी और आपूर्ति में रुकावट की चिंता सताने लगी है। 

पिछले कुछ सालों में भारत में कोई भीषण सूखा या अत्यधिक शुष्क हालात नहीं देखे गए, फिर भी यह सवाल बना हुआ है कि "यह सारा पानी कहां गया?" अंग्रेजी में पढ़ें : Same question this year...! Where has all the rainy water gone…?

जाहिर है, भंडारण क्षमता की कमी, नहरों और सामुदायिक तालाबों का खराब रखरखाव, नदी नालों की सफाई न होना और प्रदूषण की वजह से हमारा देश इस कीमती प्राकृतिक संसाधन को बचा नहीं पा रहा है। 

मॉनसून भारत की जीवनरेखा रहा है, जो कृषि को सहारा देता है, जल भंडार भरता है और लाखों लोगों की रोजी-रोटी का साधन है। लेकिन, साल 1975 से 2025 तक के मॉनसून डेटा का विश्लेषण एक चिंताजनक रुझान दिखाता है। बारिश में मामूली पर लगातार कमी और अनिश्चितता बढ़ने से जल सुरक्षा खतरे में पड़ रही है। 

पर्यावरणविद् डॉ देवाशीष भट्टाचार्य कहते हैं, "यह रुझान, भंडारण क्षमता की कमी और बढ़ती मांग के साथ मिलकर भविष्य के लिए एक डरावनी तस्वीर पेश करता है। जब तक मॉनसून की कमी पूरी तरह से जल संकट में न बदल जाए, इन चिंताजनक मुद्दों पर तुरंत कार्रवाई ज़रूरी है।" 

पिछले 25 सालों में भारत का मॉनसून और अधिक अनिश्चित हो गया है। हालांकि सालाना औसत बारिश लगभग समान बनी हुई है, लेकिन साल-दर-साल उतार-चढ़ाव बढ़ गया है। एक बड़ा बदलाव यह है कि लंबी, स्थिर बारिश की जगह अब छोटे, तेज़ वर्षा के दौर आने लगे हैं। बारिश का वितरण भी असंतुलित हो गया है। मध्य भारत में अधिक तेज़ बारिश हो रही है, जबकि पूर्वोत्तर और दक्षिणी क्षेत्रों में कमी देखी जा रही है। 

मौसम विशेषज्ञों का कहना है कि "भारतीय मॉनसून अब सिर्फ एक मौसमी घटना नहीं रहा बल्कि यह एक अप्रत्याशित और असमान शक्ति बन गया है।" चरम मौसम की घटनाएं अब नई सामान्यता बन रही हैं, इसलिए भारत को जलवायु-अनुकूल कृषि, बेहतर जल भंडारण और पूर्व चेतावनी प्रणालियों की ओर बढ़ना होगा।  

मॉनसून पर निर्भर जल उपलब्धता पर भारी दबाव है। 2002 से 2016 के उपग्रह डेटा के अनुसार, उत्तरी भारत में जमीन के नीचे के जल भंडार में कमी आई है, जिसकी वजह कम बारिश और अत्यधिक भूजल दोहन है। कृषि विशेषज्ञ बताते हैं कि बढ़ते तापमान से वाष्पीकरण भी बढ़ा है, जिससे उपलब्ध पानी और कम हो रहा है। ये रुझान डरावने हैं। दिल्ली और बेंगलुरु जैसे शहरी केंद्र, जो पहले से ही पानी की कमी से जूझ रहे हैं। मॉनसून की अनिश्चितता के साथ और भी बुरे हालात का सामना करना होगा। 

भंडारण क्षमता, जो मॉनसून की अनिश्चितता के खिलाफ एक अहम सुरक्षा कवच है, बेहद अपर्याप्त है। पिछले 45 सालों में कई बार बांधों में पानी सिंचाई की ज़रूरत से अधिक आया है, लेकिन तेज़ बारिश के अतिरिक्त पानी को संग्रहित करने के लिए बुनियादी ढांचे की कमी है। जैव विविध विशेषज्ञ डॉ मुकुल पांड्या कहते हैं, "भूजल, जो एक महत्वपूर्ण भंडार है, उत्तरी भारत में अत्यधिक दोहन की वजह से तेज़ी से खत्म हो रहा है। जमीन के ऊपर और नीचे दोनों आधुनिक भंडारण प्रणालियों में भारी निवेश के बिना, कमजोर मॉनसून के दौरान पानी की कमी को प्रबंधित करना एक सपना ही रहेगा।"

पटना के कृषि वैज्ञानिक डॉ अजय कुमार सिंह के मुताबिक पानी की मांग आसमान छू रही है। जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण और कृषि के विस्तार ने पानी की खपत को लगातार बढ़ाया है। भारत में कृषि क्षेत्र अकेले ही पानी की सबसे बड़ी खपत करता है, और शहरी व औद्योगिक ज़रूरतें इस पर और अधिक दबाव डालती हैं। आपूर्ति में गिरावट और मांग में वृद्धि के बीच यह असंतुलन एक खतरनाक चक्र बना रहा है।

टिप्पणीकार प्रो पारस नाथ चौधरी कहते हैं, "आपदा से बचने के लिए सरकारों को जलवायु-अनुकूल जल प्रबंधन को प्राथमिकता देनी होगी। इसमें भंडारण ढांचे का विस्तार और आधुनिकीकरण, वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देना और भूजल के स्थायी उपयोग को लागू करना शामिल है। सटीक कृषि और जल-कुशल तकनीकों में निवेश से मांग को कम किया जा सकता है, जबकि वनीकरण और जलवायु सुधार के प्रयासों से बारिश के पैटर्न को स्थिर किया जा सकता है। पानी की बर्बादी रोकने के लिए जन जागरूकता अभियान भी अहम हैं।"



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