नीतीश की पलटी राजनीति और तेजस्वी की बग़ावत में पीके का जोशीला तड़का!


बिहार की राजनीति को प्रभावित कर सकते हैं पियक्कड़ दारुबाज। यह डर अब चुनावी जंग के कप्तानों को सताने लगा है। खासतौर पर एनडीए के रणनीतिकारों को, क्योंकि प्रशांत किशोर जो अपने को गांधीवादी विचारधारा के समर्थक बताते हैं, ने वायदा किया है कि राज्य में नशाबंदी खत्म करे देंगे।

बहरहाल, बिहार की सियासत इस बार सिर्फ़ चुनाव नहीं बल्कि वादों, वफादारियों और विश्वास का एक इम्तिहान भी है। एक तरफ नीतीश कुमार हैं, जो सत्ता के गलियारों में बार-बार करवट बदलने वाले माहिर खिलाड़ी बन चुके हैं, तो दूसरी तरफ तेजस्वी यादव हैं, जो नई पीढ़ी के जोश और बेरोज़गारी के ग़ुस्से को सियासी ताक़त में बदलना चाहते हैं। बीजेपी अपनी संगठनात्मक मशीनरी के साथ पूरे दमख़म से मैदान में है, जबकि प्रशांत किशोर की जन सुराज मुहिम इस जंग को और दिलचस्प बना रही है। क्या पीके दूसरे केजरीवाल बनकर उभरेंगे? सवाल वही है, क्या बिहार फिर पलटेगा, या इस बार वक़्त पलट देगा!

बिहार से राजनीतिक टिप्पणीकार प्रो. पारस नाथ चौधरी कहते हैं, "बिहार विधानसभा चुनाव एक सख़्त और ज़बर्दस्त सियासी मुकाबला साबित होने वाला है। 243 सीटों की इस जंग में हज़ारों उम्मीदार मैदान में होंगे, मगर असल टक्कर दो बड़े गठबंधनों के बीच है। नीतीश कुमार की बार-बार की सियासी यू-टर्न की आदत ने उन्हें बिहार की राजनीति का सबसे अनपेक्षित खिलाड़ी बना दिया है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की कमान बीजेपी के हाथों में है। इसके साथ चिराग़ पासवान की एलजेपी (राम विलास) और कुछ छोटे दल भी हैं। मुख्य मुद्दे वही पुराने मगर आज भी ज़ख़्मी हैं, रोज़गार, किसानों की परेशानी, विकास, और गवर्नेंस। बीजेपी जहां राष्ट्रीय योजनाओं और केंद्र की कल्याणकारी स्कीमों का हवाला दे रही है, वहीं विपक्ष बिहार के विकास मॉडल पर सवाल उठा रहा है। तेजस्वी यादव अपने ‘10 लाख नौकरियों’ के वादे के साथ नौजवानों में उम्मीद जगा रहे हैं, जबकि नीतीश ‘काम और क़ानून व्यवस्था’ को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बता रहे हैं।"

समाज शास्त्री टीपी श्रीवास्तव के मुताबिक, "इस चुनाव में एक तीसरी लहर भी उठ रही है, प्रशांत किशोर की जन सुराज। उनका सफ़र एक रणनीतिकार से ज़मीनी नेता बनने तक का है। किशोर की मुहिम ने गांव-गांव में नई हलचल पैदा की है। नौजवानों और शिक्षित तबके में उनकी पकड़ दोनों गठबंधनों को परेशान कर रही है। भले ही उन्हें ज़्यादा सीटें न मिलें, मगर उनके ‘वोट कटवा’ बनने की भूमिका को लेकर दोनों खेमों में बेचैनी है। कई लोग उन्हें ‘स्पॉइलर’ कह रहे हैं, जो नतीजे पलट सकते हैं।"

नीतीश कुमार की सियासी कहानी बिहार की राजनीति का आईना है, एक आंदोलनकारी समाजवादी से लेकर सत्ता के शातिर रणनीतिकार बनने तक। वह जेपी आंदोलन से निकले, लालू प्रसाद यादव के साथ चले, फिर अलग होकर अपनी राह बनाई। समता पार्टी से लेकर जनता दल (यू) तक का उनका सफ़र सियासी ऊंचाइयों और पलटियों से भरी राजनीति की एक रोचक दास्तां है।

उनकी पहचान एक कुशल प्रशासक के रूप में तब बनी जब उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में एनडीए के हिस्से के रूप में काम किया। साल 2005 में उन्होंने 15 साल की राजद सरकार को हटाकर ‘सुशासन का दौर’ शुरू किया। कानून व्यवस्था सुधरी, सड़कें बनीं, और लड़कियों की शिक्षा पर ज़ोर दिया गया।

मगर अब वही नीतीश ‘सियासी पलटीबाज़ी’ के प्रतीक बन चुके हैं। कई बार बीजेपी और राजद के बीच गठबंधन बदलने से उनकी साख पर असर पड़ा। हर बार उन्होंने इसे ‘हालात की मजबूरी’ बताया, लेकिन जनता अब इसे ‘सत्ता बचाने की सियासत’ मान रही है। पर नीतीश का विकल्प क्या है, इस प्रश्न का जवाब बिहार के कन्हैया टाइप लड़के नहीं दे पा रहे हैं। लालू युग का जंगल राज आज भी सभी को याद है।

साल 2016 की शराबबंदी नीति भी नीतीश कुमार के कार्यकाल की एक विवादास्पद पहल रही है। मुजफ्फरपुर के जनार्दन बताते हैं कि शुरुआत में इसे औरतों ने खुलकर सराहा, घरों में अमन लौटा, हिंसा घटी। लेकिन, वक्त के साथ यह नीति आर्थिक बोझ, ग़ैर-क़ानूनी शराब कारोबार और नकली शराब त्रासदियों की वजह बन गई। पर, आधी आबादी खुलकर इस मुद्दे पर नीतीश के साथ है।

बिहार की युवा तहरीक अब कोचिंग सेंटरों में पनप रही है, जिसे लोग मज़ाक में ‘ख़ान सर सिन्ड्रोम’ कहते हैं। पटना और दूसरे शहरों में हज़ारों नौजवान आईएएस, इंजीनियरिंग, और सरकारी नौकरियों की तैयारी कर रहे हैं। यह कोचिंग गुरू अब बिहार की नई प्रेरणा बन चुके हैं, जो किताबों और क्लासरूम में बिहार का मुक़द्दर लिख रहे हैं।

बिहार की सोशल एक्टिविस्ट विद्या कहती हैं, "यह पलायन और आकांक्षा ‘खान सर सिंड्रोम’ से ईंधन प्राप्त करते हैं। बिहार भारत का कोचिंग ग्रैंडमास्टर बन गया है। पटना के सुपर 30 वाले आनंद और कोटा के मूल गुरुओं की जड़ें अक्सर बिहार से ही जुड़ी होती हैं। उनके संस्थान आशा की फैक्ट्रियां हैं, जो लाखों छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार करते हैं, एक ऐसी घटना जिसे लोकप्रिय फिल्मों में भी दर्शाया गया है। ये शिक्षक आधुनिक लोक नायक हैं, जो लचीलेपन और उन्नति की बिहार की कहानी को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, और सीधे तौर पर आईएएस के प्रति जुनून और देशभर में भेजे जाने वाले कुशल कार्यबल, दोनों को ही बढ़ावा देते हैं।"

कुल मिलाकर, इस बार का चुनाव सिर्फ़ दलों या चेहरों का नहीं, बल्कि उस यक़ीन और बदलाव की लड़ाई है, जिसकी तलाश हर बिहारी के दिल में है। सवाल वही है, क्या नीतीश फिर पलटेंगे, या इस बार जनता पलट देगी खेल...?



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