घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग दर्शन से मिलते हैं समस्त पुरुषार्थिक सुख


घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग और शिवालय तीर्थ महाराष्ट्र के औरंगाबाद ज़िले में एलागंगा नदी और एलोरा गुफाओं के नज़दीक स्थित है। शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से यह आखिरी ज्योतिर्लिंग है। यहां की यात्रा शिवालय तीर्थ, ज्योतिर्लिंग और लक्ष्य विनायक गणेश के दर्शन से पूर्ण होती है। ये सभी तीर्थस्थल 500 मीटर के दायरे में स्थित हैं। बाहर से देखने पर घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर सामान्य मंदिरों की भांति ही दिखाई देता है, लेकिन अंदर जाकर देखने से इसकी महत्ता और भव्यता स्पष्ट होती है। इस क्षेत्र में कई अन्य धर्मावलम्बियों के भी पवित्र स्थान हैं।

बौद्ध भिक्षुओं की एलोरा गुफाएं, जनार्दन महाराज की समाधि, कैलास गुफा, सूर्य कुंड व शिव कुंड नाम के दो सरोवर यहीं स्थित हैं। पहाड़ी पर दौलताबाद का क़िला है, जिसमें धारेश्वर शिवलिंग है। इसी के पास एकनाथजी के गुरु श्रीजनार्दन महाराज की समाधि भी है। नाथ पंथ वाले तो कैलास मंदिर को ही घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग मानते हैं।

पौराणिक पृष्ठभूमि के अनुसार, देवगिरि पर्वत के निकट सुधर्मा नामक ब्राह्मण और उनकी पत्नी सुदेहा निवास करते थे। दोनों ही भगवान शिव के परम भक्त थे। उनके कोई संतान न थी, इस कारण वे बहुत दुखी रहते थे। उनकी पत्नी उन्हें दूसरी शादी करने का आग्रह करती थी। अत: पत्नी के जोर देने पर सुधर्मा ने अपनी पत्नी की बहन घुश्मा के साथ विवाह कर लिया।

घुश्मा भी भगवान शिव की अनन्य भक्त थी। भगवान शिव की कृपा से उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र प्राप्ति से घुश्मा का मान बढ़ गया, परंतु इस कारण सुदेहा को उससे ईष्या होने लगी। जब पुत्र बड़ा हो गया तो उसका विवाह कर दिया गया। यह सब देखकर सुदेहा के मन में और अधिक ईर्ष्या पैदा हो गई।

इस कारण उसने पुत्र का अनिष्ट करने की ठान ली। एक दिन रात्रि में जब सब सो गए, तब उसने घुश्मा के पुत्र को चाकू से मारकर उसके शरीर के टुकड़े कर दिए और उन टुकड़ों को सरोवर में डाल दिया, जहां घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव लिंग का विसर्जन करती थी। शव को तालाब में फेंककर वह आराम से घर में आकर सो गई।

रोज की भांति जब सभी लोग अपने कार्यों मे व्यस्त हो गए और नित्यकर्म में लग गए तब सुदेहा भी आनन्दपूर्वक घर के काम-काज में जुट गई। परंतु, जब बहू नींद से जागी तो बिस्तर को ख़ून में सना पाया तथा मांस के कुछ टुकड़े दिखाई दिए। यह भयानक दृश्य देखकर व्याकुल बहू अपनी सास घुश्मा के पास जाकर रोने लगी और पति के बारे मे पूछने लगी। सुदेहा भी उसके साथ विलाप मे शामिल हो गई ताकि किसी को भी उस पर संदेह न हो।

बहू के क्रन्दन को सुनकर घुश्मा जरा भी दुखी नहीं हुई और अपने नित्य पूजन-व्रत में लगी रही व सुधर्मा भी अपने नित्य पूजा-कर्म में लगे रहे। दोनों पति-पत्नी भगवान का पूजन भक्ति के साथ बिना किसी विघ्न और चिन्ता के करते रहे। जब पूजा समाप्त हुई तब घुश्मा ने अपने पुत्र की रक्त से भीगी शैय्या को देखा। यह दृश्य देखकर भी उसने किसी प्रकार का विलाप नहीं किया। उसने कहा कि जिसने मुझे पुत्र दिया है, वही शिव उसकी रक्षा भी करेंगे। अत: चिन्ता करने से कुछ न होगा। इस प्रकार के विचार कर उसने शिव को याद किया और धैर्य धारण कर शोक से मुक्त हो गई।

प्रतिदिन की तरह वह शिव मंत्र ‘ऊँ नम: शिवाय’ का उच्चारण करती रही तथा पार्थिव लिंग को लेकर सरोवर के तट पर गई। जब उसने पार्थिव लिंग को तालाब में प्रवाहित किया तो उसका पुत्र सरोवर के किनारे खड़ा हुआ दिखाई पड़ा अपने पुत्र को देखकर घुश्मा प्रसन्नता से भर गई। इतने में ही भगवान शिव उसके सामने प्रकट हो गए।

भगवान शिव घुश्मा की भक्ति से बहुत प्रसन्न हुए और वरदान मांगने को कहा। भगवान ने कहा कि यदि वह चाहे तो वह उसकी बहन को त्रिशूल से मार डालें। परंतु, घुश्मा ने श्रद्धापूर्वक महेश्वर को प्रणाम करके कहा कि सुदेहा बड़ी बहन है। अत: आप उसकी रक्षा करे उसे क्षमा करें। घुश्मा ने निवेदन किया कि वह दुष्कर्म नहीं कर सकती और बुरा करने वाले की भी भलाई करना ही अच्छा मानती है।

अत: भगवान शिव घुश्मा के भक्तिपूर्ण विचारों को सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हो उठे और कहा घुश्मा तुम कोई और वर मांग सकती हो। घुश्मा ने कहा, हे महादेव! मुझे वर देना ही चाहते हैं तो लोगों की रक्षा और कल्याण के लिए आप यहीं सदा निवास करें। घुश्मा की प्रार्थना से प्रसन्न शिव ने उस स्थान पर सदैव वास करने का वरदान दिया। शिव तालाब के समीप ज्योतिर्लिंग के रूप में वास करने लगे और घृष्णेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।

घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग पूर्वमुखी है। कहा जाता है कि घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग और देवगिरि दुर्ग के बीच एक सहस्रलिंग पातालेश्वर या सूर्येश्वर महादेव हैं, जिनकी आराधना सूर्य भगवान करते हैं। इसलिए, यह ज्योतिर्लिंग भी पूर्वमुखी है। सूर्य द्वारा पूज्य होने के कारण घृष्णेश्वर त्रिविध तापों यानी दैहिक, दैविक व भौतिक का हरण कर धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष जैसे पुरुषार्थिक सुख प्रदान करते हैं।

आदि शंकराचार्य के अनुसार कलियुग में इस ज्योतिर्लिंग के नाम-स्मरण से ही समस्त भवरोगों से मुक्ति मिल जाती है। शिव पुराण के अनुसार जिस तरह शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा में चंद्रमा को देखकर सुख की अनुभूति होती है, उसी प्रकार घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग दर्शन कर मनुष्य पाप मुक्त हो जाता है।

पद्म पुराण के अनुसार, भगवान दिन में तो सब जगह वास करते हैं लेकिन रात में शिवालय तीर्थ के पास ही बसते हैं। इसलिए, घृष्णेश्वर में शयन आरती का विशेष महत्व है। सभी जगह 108 शिवलिंग का महत्व बताया जाता है किंतु यहां पर 101 का महत्व है। 101 पार्थिव शिवलिंग बनाए जाते हैं और 101 की ही परिक्रमा की जाती हैं।

घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग की यात्रा समीप ही स्थित शिवालय सरोवर दर्शन के बिना पूरी नहीं होती है। ऐसी भी मान्यता है कि इच्छित फल की प्राप्ति शिवालय के आशीर्वाद से ही होती है। निःसंतान दम्पती को सूर्योदय से पूर्व शिवालय सरोवर दर्शन के बाद घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने से उत्तम संतान की प्राप्ति होती है। शिवालय तीर्थ की सजावट देखते ही बनती है। यहां के पत्थरों को काग़ज़ की तरह तराशा गया है। ऊपर से इस सरोवर को देखने से अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है।

घृष्णेश्वर मंदिर 13वीं व14वीं शताब्दी में मुग़ल-मराठा संघर्ष के दौरान कई बार नष्ट हुआ और अनेक बार इसका पुनर्निर्माण किया गया। 16वीं सदी में वेरूल में शिवाजी के दादा मालोजी भोसले ने फिर से मंदिर का निर्माण कराया था। मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद इंदौर की रानी अहल्याबाई ने 18वीं शताब्दी में वर्तमान मंदिर का पुनर्निर्माण कराया।

घृष्णेश्वर मंदिर दक्षिण भारतीय मंदिरों की वास्तुकला शैली और संरचना का एक अप्रतिम उदाहरण है। मंदिर का निर्माण लाल पत्थरों से किया गया है। इसमें तीन द्वार हैं। गर्भगृह के ठीक सामने मौजूद 24 स्तम्भों से निर्मित विस्तृत सभामंडप है। भक्तगण यहीं से दर्शन लाभ लेते हैं। इसके अंदर जाने के लिए पुरुषों को उघड़े बदन जाना होता है। यह भारत में सबसे छोटा ज्योतिर्लिंग मंदिर है।

घृष्णेश्वर मंदिर मंदिर पूरे वर्ष खुला रहता है। हालांकि, तेज़ गर्मी के कारण, सर्दियों या शुरुआती बसंत के महीने के दौरान यात्रा करने की सलाह दी जाती है। इस समय आने वाले तीर्थयात्रियों के लिए मौसम सुहावना अधिक आरामदायक रहता है। यात्रा के लिए सर्दी सबसे लोकप्रिय और सबसे अच्छा समय है। यह अक्टूबर में शुरू होता है और फरवरी तक जारी रहता है।

मंदिर तक पहुंचने के लिए, आप ट्रेन, हवाई जहाज या बस का उपयोग कर सकते हैं। मंदिर का नजदीकी रेलवे स्टेशन औरंगाबाद है। वहां से आप टैक्सी किराए पर लेकर या स्थानीय बस लेकर आसानी से मंदिर तक पहुंच सकते हैं। घृष्णेश्वर मंदिर का निकटतम हवाई अड्डा भी औरंगाबाद है। इसे चक्कलथाना हवाई अड्डे के नाम से भी जाना जाता है।

मंदिर के लिए निकटतम शहर औरंगाबाद से बस सेवा भी उपलब्ध हैं। औरंगाबाद से आप टैक्सी या बस द्वारा आसानी से मंदिर तक पहुंच सकते हैं। मंदिर औरंगाबाद से लगभग 25 किलोमीटर दूर है।



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