राजस्थान में उदयपुर जिले के कैलाशपुरी तीर्थ में भगवान शिव ‘एकलिंग’ के नाम से विराजित हैं। ‘श्री एकलिंग’ भगवान शिव का प्राचीन मंदिर है। यहां स्थित शिवलिंग के चारों ओर मुख बने हुए हैं। मंदिर परिसर में 108 देवी-देवताओ के अन्य छोटे-छोटे मंदिर भी मौजूद हैं। इन्द्रसागर झील के तट पर स्थित ये सभी मंदिर संगमरमर और चूना पत्थर के बने हुए हैं। मुख्य मंदिर दो मंजिला इमारत है। इसकी छत की पिरामिड शैली और खूबसूरत नक्काशीदार टावर शानदार दिखते हैं।
पूर्वी भारत में जहां त्रिकलिंग यानी उत्कलिंग, मध्यकलिंग और कलिंग, की मान्यता रही है, वहीं पश्चिम भारत में एकलिंग की मान्यता है। एकलिंग शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया है जो ‘एक ही लिंग’ या ‘एक मूर्ति’ के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इस शब्द का प्रयोग शिव भक्ति के संदर्भ में होता है जब शिव और पार्वती की जगह एक ही मूर्ति होती है। यह मूर्ति दो भिन्न देवताओं को एक साथ दर्शाती है और इसीलिए इसे ‘एकलिंग’ कहा जाता है। एकलिंग का अर्थ होता है ‘एक मूर्ति जिसमें दो भिन्न देवताएं हों’।
साल 917 में मिले एक शिलालेख के अनुसार, मूलत: यहां का मंदिर लाकुलीश संप्रदाय का है। किंतु, मध्यकाल में वर्तमान एकलिंग का मंदिर बना और उसकी मौजूदा पूजा पद्धति निर्धारित की गई। मेवाड़ शैली में पत्थरो से निर्मित श्री एकलिंग उदयपुर और मेवाड़ का संबसे विख्यात और विशाल मंदिर है।
एकलिंग के चार चेहरे भगवान शिव के चार रूपों को दर्शाते हैं। पूरब दिशा की तरफ का चेहरा सूर्य देव, पश्चिम दिशा के तरफ का चेहरा भगवान ब्रह्मा, उत्तर दिशा की तरफ का चेहरा भगवान विष्णु और दक्षिण की तरफ का चेहरा रूद्र स्वयं भगवान शिव का रूप दर्शाता है। मंदिर के गर्भगृह का मुख्य द्वार पश्चिम दिशा में खुलता है और गर्भगृह के सामने पीतल धातु से बनी शिव के वाहन नन्दी की मूर्ति है।
मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करने की आज्ञा किसी को भी नहीं हैं। श्री एकलिंग दर्शन एवं वंदना कठघरे से बाहर रहकर ही करनी होती हैं। मदिर में एकलिंग का श्रृंगार फूलों और रत्नों से नियमित किया जाता है।
श्री एकलिंग मेवाड़ के शासक और राजपूतों के मुख्य आराध्य देव हैं। कहा जाता हैं कि मेवाड़ में राजा उनके प्रतिनिधि के रूप में शासन किया करता था। युद्ध पर जाने से पहले राजपूत श्री एकलिंग का आशीर्वाद जरूर लेते थे।
श्री एकलिंग मंदिर परिसर में मंदिर के इतिहास के बारे में जानकारी देता हुआ मंदिर ट्रस्ट का एक बोर्ड लगा हुआ था। इसके अनुसार, डूंगरपुर राज्य की ओर से मूल बाणलिंग के इंद्रसागर में प्रवाहित किए जाने पर वर्तमान चतुर्मुखी लिंग की स्थापना की गई थी। एकलिंग भगवान को साक्षी मानकर मेवाड़ के राणाओं ने अनेक बार ऐतिहासिक महत्व के प्रण किए थे। जब विपत्तियों के थपेड़ों से महाराणा प्रताप का धैर्य टूटने जा रहा था तब उन्होंने अकबर के दरबार में रहकर भी राजपूती गौरव की रक्षा करने वाले बीकानेर के राजा पृथ्वीराज को, उनके उद्बोधन और वीरोचित प्रेरणा से भरे हुए पत्र के उत्तर में जो शब्द लिखे थे वे आज भी अमर हैं।
मेवाड़ के संस्थापक बप्पा रावल ने आठवीं शताब्दी में इस मंदिर का निर्माण करवाया और एकलिंग मूर्ति की प्रतिष्थापना की। बाद में दिल्ली सल्तनत काल के शासकों ने आक्रमण के दौरान मूल मंदिर और मूर्ति को नष्ट कर दिया। लेकिन, फिर चौदहवीं शताब्दी में मेवाड़ के राजा और सिसोदिया वंश के संस्थापक राजा हमीर सिंह ने इसका पुनर्निर्माण कराया। इसके बाद, मेवाड़ के दूसरे राजा राणा कुंभा जब विष्णु मंदिर का निर्माण करवा रहे थे, तब उन्होने एकलिंग मंदिर का भी पुनः निर्माण कराया। साल 1460 के लेख में राणा कुंभा को ‘एकलिंग के निजी सेवक’ के रूप में संबोधित किया गया है। इसके बाद 15वीं शताब्दी के अंत में मालवा सल्तनत के घियाथ शाह ने मेवाड़ पर आक्रमण कर एकलिंग के मंदिर को नष्ट कर दिया। साल 1473 ई. से 1509 ई. के मध्य राणा कुंभा के पुत्र राणा रायमल ने उसे पराजित कर बंदी बना लिया। तदोपरांत, राणा रायमल ने इस मंदिर का एक बार फिर निर्माण कराया। राणा रायमल द्वारा इस मंदिर का अंतिम बार संरक्षण कार्य सम्पन्न हुआ, जिसमें उन्होंने मंदिर की वर्तमान मूर्ति स्थापित की। बाद में, 16वीं शताब्दी के दौरान यह मंदिर रामानंदियों के नियंत्रण में आ गया।
यह स्थान उदयपुर शहर से लगभग 22 किमी और नाथद्वारा से लगभग 26 किमी की दूरी पर राष्ट्रीय राजमार्ग-48 पर स्थित है। उदयपुर से यहां जाने के लिए बसें मिलती हैं। सबसे निकटतम रेलवे स्टेशन खेमली एवं देबारी हैं। इसके अतिरिक्त, मंदिर का सबसे निकटतम सड़क मार्ग उदयपुर देलवाड़ा मार्ग से जुड़ता है। आप यहां बस, टैक्सी या अन्य वाहन के जरिये भी पहुंच सकते हैं। उदयपुर से एकलिंग मंदिर के लिए सीधी बस सेवा भी उपलब्ध है। मंदिर का सबसे निकटतम हवाई अड्डा उदयपुर का महाराणा प्रताप हवाई अड्डा है।
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