महिलाओं के खिलाफ हिंसा का दमदारी से करना होगा सामना

क्या देशभर में बलात्कारों की मौजूदा लहर सिर्फ़ कानून और व्यवस्था की समस्या है या यह समाज में व्याप्त किसी गहरी अस्वस्थता का लक्षण है? आजकल यह सवाल सामाजिक समूहों में गरमागरम बहस का विषय बना हुआ है।

कई मामलों में, बलात्कार सभी तरह के राजनेताओं के लिए विवादों को हवा देने का आसान साधन बन गया है, ताकि वे बिना किसी सहयोगात्मक समाधान के अपने विरोधियों के खिलाफ़  माहौल बना सकें और वोट बैंक की राजनीति खेल सकें।

हालांकि, कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि भारत में महिलाओं के खिलाफ़ अपराधों की भयावह प्रवृत्ति देश की अंतरात्मा पर एक दाग है। यह हमारी संस्कृति में स्त्री-द्वेष और लैंगिक भेदभाव की गहरी जड़ें जमाए बैठे होने का लक्षण है। पूर्व में दिल्ली का निर्भया कांड और पिछले दिनों कोलकाता में एक युवा डॉक्टर के साथ क्रूरतापूर्वक बलात्कार व हत्या उस व्यापक हिंसा और क्रूरता की याद दिलाती है, जिसका सामना महिलाएं रोज़ाना करती हैं।

महिला कार्यकर्ताओं के अनुसार यह शर्म की बात है कि अपनी प्राचीन परंपराओं और मूल्यों पर गर्व करने वाले देश में महिलाओं के साथ दोयम दर्जे के नागरिक जैसा व्यवहार किया जाता है। महिलाएं लगातार उत्पीड़न, हमले और यहां तक ​​कि पुरुषों के हाथों मौत के डर के साये में रहती हैं।

ऐसी घटनाओं के प्रति अधिकारियों की उदासीन प्रतिक्रिया व न्याय व्यवस्था की प्रणालीगत विफलताएं केवल अपराधियों को प्रोत्साहित ही करती हैं और हिंसा के इस चक्र को जारी रखने में मदद करती हैं।

युवा छात्रा माही कहती हैं कि अब भारत के लिए जागने और महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा की इस महामारी का सीधा सामना करने का समय आ गया है। हमें सिर्फ़ दिखावटी सेवा और खोखले वादों से ज़्यादा की ज़रूरत है। हमें वास्तविक बदलाव की ज़रूरत है। इसकी शुरुआत एक सांस्कृतिक बदलाव से हो जो महिलाओं को समान रूप से महत्व और उनको सम्मान दे।

भारत में महिलाओं के खिलाफ़ हर घंटे 49 भयावह बलात्कार के मामलों का आंकड़ा एक गंभीर वास्तविकता को रेखांकित करता है। इस पर तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत है। देश के पितृसत्तात्मक समाज, लिंग आधारित हिंसा और व्यवस्थागत असमानताओं ने एक ऐसा माहौल बना दिया है, जहां बेइंतहा यौन अपराध पनपते हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर के अनुसार, "अधिकांश देशों के विपरीत, भारत में बलात्कार की परिभाषा संकीर्ण है। यह अक्सर गैर-सहमति वाले यौन संबंध को आपराधिक अपराध के रूप में मान्यता देने में विफल रहती है। इससे अपराधियों को बेपरवाही से अपराध करने की अनुमति मिलती है। बेहद कम दोषसिद्धि दर वाली आपराधिक न्याय प्रणाली की न्याय देने में असमर्थता इस संकट को और बढ़ा देती है। मौजूदा समय में इस तरह के 1,33,000 से अधिक मामले अदालतों में लंबित हैं।"

सामाजिक कलंक और पीड़ित को दोषी ठहराना रिपोर्टिंग को हतोत्साहित करता है। ऐसे में डेटा की कमी समस्या की वास्तविक सीमा को अस्पष्ट करती है। परिचित बलात्कार, वैवाहिक बलात्कार और घरेलू हिंसा की रिपोर्टिंग बहुत कम होती है। इससे यौन हिंसा की गंभीरता छिप जाती है।

स्तंभकार मुक्ता गुप्ता कहती हैं कि विभिन्न शोध कार्यों में विषम लिंग अनुपात, सांस्कृतिक कारक और सामाजिक-आर्थिक असंतुलन को इन अपराधों में योगदान देने वाले कारक के रूप में इंगित किया गया है।

सामूहिक बलात्कार, विशेष रूप से, निराश युवाओं की एक परेशान करने वाली प्रवृत्ति को दर्शाते हैं, जो अक्सर शिक्षा व नौकरी के अवसरों में कमी और देरी से होने वाली शादियों से प्रेरित होते हैं। कार्यबल में शिक्षित महिलाओं की वृद्धि, विवाह और पारिवारिक जीवन में देरी ने पारंपरिक यौन गतिशीलता को बाधित किया है। जाति-आधारित यौन हिंसा असमान रूप से हाशिए के समुदायों को प्रभावित करती है, जो उत्पीड़न की अंतर्क्रियाशीलता को उजागर करती है।

भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराधों के संकट से निपटने के लिए, गहन सामाजिक परिवर्तन आवश्यक हैं। बलात्कार को केवल जुनूनी अपराध के बजाय शक्ति, धमकी और अधीनता के साधन के रूप में पहचाना जाना चाहिए। सुरक्षित कार्यस्थल, शिक्षा और नौकरी के अवसर सुनिश्चित करने से सामाजिक-आर्थिक कारकों को संबोधित करने में मदद मिल सकती है। हालांकि, ये उपाय केवल तभी प्रभावी होंगे जब महिलाओं, लिंग और कामुकता के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में एक मौलिक बदलाव होगा।

केवल सामूहिक कार्रवाई के माध्यम से ही भारत बलात्कार के अभिशाप को मिटाने और सभी के लिए एक सुरक्षित और अधिक न्यायसंगत समाज बनाने की उम्मीद कर सकता है।

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