लोक सभा अध्यक्ष पद से जुड़े विवादों का हल है आसान

लोक सभा अध्यक्ष का पद अत्यधिक गरिमापूर्ण होता है। जिस किसी को भी यह पद मिले, इसे प्राप्त करना उसके लिए एक विशिष्ट उपलब्धि मानी जाती है। इस पद पर नियुक्त व्यक्तित्व के कार्यकलापों का आंकलन न केवल देश बल्कि पूरी दुनिया के नेताओं और नागरिकों द्वारा किया जाता है।

साथ ही, एक सच यह भी है कि आजादी मिलने के तुरंत बाद से ही, भारत के इतिहास में कई बार इस पद के साथ विवाद जुड़ते रहे हैं। पंडित जवाहर लाल नेहरू के जमाने में लोक सभा के प्रथम अध्यक्ष जीवी मावलंकर का कार्यकाल भी कई विवादों से परिपूर्ण रहा। उनके कार्यकाल से लेकर हालिया लोक सभा अध्यक्ष ओम बिड़ला से जुड़े विवादों तक अधिकांश अध्यक्षों की कार्यशैली पर भी विभिन्न आरोप लगते रहे हैं।

इसी के चलते, जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस पद की गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए एक सुझाव दिया था कि लोक सभा अध्यक्ष निर्वाचित होने के पश्चात चयनित नेता को अपनी पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से त्यागपत्र दे देना चाहिए। उनके अनुसार लोक सभा अध्यक्ष यदि किसी पार्टी से जुड़ा रहेगा तो वह अपने पद के साथ न्याय नहीं कर पाएगा और इस कारण उसे विवादों अथवा आक्षेपों का सामना करते रहना पड़ेगा। विशेष रूप से विपक्षी पार्टियों के सदस्यों के साथ उसको न्याय करने में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। प्रतिपल उसको इस अहसास की अनुभूति होती रहेगी कि पांच वर्षों के कार्यकाल के पश्चात एक सांसद के रूप में अपनी सदस्यता को यथावत बनाए रखने के लिए उसे पुनः अपनी मूल पार्टी की शरण में ही जाना होगा।

वास्तव में यह एक त्रुटिपूर्ण परम्परा है। जब कोई नेता एक बार अध्यक्ष पद को सुशोभित कर लेता है तो उसे भविष्य में पुनः ससंद में एक सांसद के रूप में कार्य करना शोभा नहीं देता क्योंकि ऐसा होने पर अध्यक्ष जैसे उच्च पद की एक अवमानना ही होगी।

किसी भी सांविधानिक पद पर नियुक्त व्यक्तित्व को सदैव ही यह संज्ञान होना ही चाहिए कि उनका कोई भी निर्णय यदि भेदभाव से परिपूर्ण होगा तो उनकी छवि निश्चित रूप से जनता के समक्ष नकारात्मक होगी एवं इसके दुष्प्रभाव से उनकी आगामी पीढ़ियों पर भी प्रभाव पड़ेगा।

केन्द्र में किसी भी पार्टी की सरकार हो परन्तु अध्यक्ष को अपना राजनीतिक दायित्व पूर्ण निष्पक्षता के साथ निर्वाह करना चाहिए। अध्यक्ष का प्रत्येक निर्णय पूर्ण विवेक के साथ संविधान व ईश्वर को समर्पित करते हुए लिया जाना चाहिए तभी वह देश, दुनिया व समाज में अपनी एक आदर्श छवि स्थापित कर पाएगा।

(लेखक आईआईएमटी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं और यहां व्यक्त विचार उनके स्वयं के हैं)

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