डर और अविश्वास के दौर में शादियों पर मंडरा रहा है खतरा


संयुक्त परिवारों के बुजुर्ग आजकल लड़कों की शादी करने से घबराने लगे हैं। उन्हें बहुओं का खौफ सता रहा है। उधर, नौकरी कर रहे युवा अकेले रहना पसंद करने लगे हैं, शादियों के बंधन से मुक्त ‘लिव-इन रिलेशन’ में, अंजाम जो भी हो। सात जन्मों का बंधन सात साल चल जाए तो शादी सफल मानी जा रही है।

दरअसल, देश के अलग-अलग हिस्सों में विवाहित जोड़ों द्वारा आत्महत्याओं और निर्मम  हत्याओं की एक श्रृंखला के बाद, बेंगलुरु से मेरठ तक, शादी का पवित्र संस्थान खतरे में दिखाई दे रहा है। ऐसे चरम कदमों की वजह अहंकार के टकराव से लेकर बेवफाई व महत्वाकांक्षी तनाव आदि तक हैं। भारतीय समाजशास्त्रियों का कहना है कि शादियां, जिन्हें कभी समाज की नींव माना जाता था, अब गंभीर तनाव और जांच के दायरे में हैं। दुनियाभर में, युवा पुरुष और महिलाएं तेजी से विवाह से बच रहे हैं।

प्रो पारस नाथ चौधरी के मुताबिक, "भारत में, जहां शादी को कभी एक निर्विवाद सामाजिक दायित्व माना जाता था, वहां युवाओं की बढ़ती संख्या अकेले रहने का विकल्प चुन रही है। कुछ व्यक्तिगत पसंद से और कुछ सिर्फ डर की वजह से ऐसा कर रहे हैं। वह संस्था जिसका उद्देश्य प्यार, स्थिरता और सामाजिक सामंजस्य को बढ़ावा देना था, अब संदेह, यहां तक कि डर के साये में देखी जा रही है। सवाल यह है कि क्या शादी अप्रचलित हो रही है, और यदि ऐसा है, तो समाज के भविष्य के लिए इसका क्या अर्थ है? हाल की सुर्खियां डरावनी रही हैं। सशक्त पत्नियों द्वारा अपने पतियों की हत्याओं को अंजाम देने, निर्दोष पुरुषों को फंसाने के लिए कानूनी खामियों का फायदा उठाने और वैवाहिक कानूनों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की कहानियां सामने आई हैं।"

हालांकि, ऐसे मामले सामान्य नहीं हैं, लेकिन उनके सनसनीखेज होने से गहरे घाव लगे हैं। सामाजिक कार्यकर्ता मुक्ता बेंजामिन कहती हैं, "युवा पुरुष शादी से सावधान हो रहे हैं। झूठे आरोपों व कानूनी उत्पीड़न, संयुक्त परिवारों में अहंकार के टकराव व समायोजन की कमी से बने जहरीले वातावरण, उच्च दहेज की मांग, गुजारा भत्ता का बोझ और घर चलाने की बढ़ती लागत से डर बढ़ा है। परिणाम? पुरुषों की एक पीढ़ी जो शादी को साझेदारी के रूप में नहीं बल्कि संभावित जीवन बर्बाद करने वाले जुए के रूप में देखती है।"

महानगरों में शादी का आकर्षण कम हो रहा है। यहां युवा आबादी का एक बड़ा हिस्सा लिव-इन रिलेशनशिप का विकल्प चुन रहा है। एलजीबीटीक्यू का दायरा लगातार बढ़ रहा है। इस चलन में भारत अकेला नहीं है। पश्चिम दशकों से शादियों में लगातार गिरावट देख रहा है। स्वीडन और जर्मनी जैसे देशों में शादी की दरें गिर गई हैं। अकेलापन सामान्य हो गया है। चीन और जापान में बढ़ते व्यक्तिवाद, आर्थिक दबाव और बढ़ते लैंगिक विभाजन ने ‘विवाह हड़ताल’ को जन्म दिया है। लाखों लोग इससे बाहर निकल रहे हैं।

बिहार की समाज शास्त्री डॉ विद्या चौधरी झा कहती हैं कि महानगरों में पेशेवर युवा शादी में देरी करते हैं या शादी कर ही नहीं रहे हैं। सामाजिक अपेक्षाओं से अधिक करियर और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्राथमिकता देते हैं। यहां तक कि ग्रामीण भारत में भी, जहां कभी परंपरा के रूप में जल्दी शादी हुआ करती थी, युवा पुरुष और महिलाएं 30 के दशक तक अविवाहित रहते हैं। एक पीढ़ी पहले यह एक अनसुनी घटना थी।

एक अन्य सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर पूछती हैं कि जो लोग शादी का बचाव करते हैं, उनका तर्क है कि यह जिम्मेदार नागरिक बनाता है। इन लोगों की दुनिया में भावनात्मक, वित्तीय और सामाजिक हिस्सेदारी होती है। जब लोग शादी करते हैं और परिवार पालते हैं, तो वे भविष्य में निवेश करते हैं, सामाजिक स्थिरता में योगदान करते हैं। लेकिन, जब शादी कम हो जाती है तो क्या होता है?

अविवाहित व्यक्तियों में सामुदायिक कल्याण के लिए दीर्घकालिक प्रतिबद्धता की कमी हो सकती है। गिरती शादियों से जनसंख्या कम होती है, जैसा कि जापान में देखा गया है। इससे आर्थिक स्थिरता को खतरा बढ़ता है। पारिवारिक बंधन के बिना, मानसिक स्वास्थ्य खराब हो सकता है। इस दृष्टिकोण में, शादी सिर्फ एक व्यक्तिगत पसंद नहीं बल्कि एक सामाजिक अनुबंध भी है, जो सामूहिक जिम्मेदारी को सुनिश्चित करता है।

तमिल बुद्धिजीवी टीएन सुब्रमनियन का कहना है कि शादी-विरोधी मानसिकता बढ़ रही है, लेकिन यह अपरिवर्तनीय नहीं है। विवाह में विश्वास को पुनर्जीवित करने के लिए कानूनी दुरुपयोग को रोकने और विश्वास बहाल करने के लिए लिंग-तटस्थ कानूनों को सुनिश्चित करना, आवास लागत को कम करना, मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना और परिवारों के लिए प्रोत्साहन प्रदान करना, रिश्तों में संघर्ष समाधान को प्रोत्साहित करना, वैवाहिक परामर्श को बढ़ावा देना और सामाजिक दबाव को कम करने जैसे प्रणालीगत परिवर्तनों की आवश्यकता है।

शादी में गिरावट सिर्फ एक व्यक्तिगत पसंद नहीं है बल्कि यह एक सभ्यतागत चुनौती है। यदि युवा शादी को एक जोखिमभरा व अप्रतिस्पर्धी प्रयास मानते रहते हैं, तो समाज को एक ऐसे भविष्य का सामना करना पड़ सकता है जहां प्रतिबद्धता, जिम्मेदारी और अंतर-पीढ़ीगत बंधन मिट जाते हैं। समाधान अनिच्छुक व्यक्तियों पर शादी को मजबूर करने में नहीं है, बल्कि इसे एक सुरक्षित, संतोषजनक और टिकाऊ संस्था बनाने में है।



Related Items

  1. सात जन्मों का वादा या सात मिनट का फैसला...!

  1. आगरा की धरोहरों पर संकट, सरकारी लापरवाही से अतिक्रमण का बढ़ा खतरा

  1. बृज की हरियाली पर विलायती बबूल का बढ़ता खतरा




Mediabharti