राजनीतिक बहसों में आजकल महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू को 1947 के विभाजन के लिए कटघरे में खड़ा करके दोषी ठहराया जाता है। समाजवादी चिंतक और नेता डॉ राम मनोहर लोहिया ने भी अपनी किताब ‘गिल्टी मैन ऑफ इंडियाज पार्टीशन’ में कांग्रेसियों को ही अपना निशाना बनाया है।
‘अखंड भारत’ और ‘सोने की चिड़िया’ के पक्षधर, स्वतंत्रता आंदोलन के नेतृत्व की भारत के विभाजन के लिए राजी होने के लिए हमेशा आलोचना करते रहे हैं। यह माना जाता है कि भारत का विभाजन गलत हुआ। साथ ही, मोहम्मद अली जिन्ना को इस ऐतिहासिक घटना के मुख्य खलनायक के रूप में चित्रित किया जाता है।
Read in English: It is better to forget the horror of partition now…
मूल प्रश्न यह है कि यदि 1947 में भारत को दो भागों में बांटने की योजना नहीं बनती तो आज के दिन भारत की क्या तस्वीर होती?
कल्पना कीजिए कि यदि अंग्रेजों की 1947 की विभाजन योजना को अस्वीकार कर दिया गया होता तो आज का भारत कैसा दिखता और आज संयुक्त रूप से मुस्लिम आबादी कितनी होती।
राजनैतिक विश्लेषक प्रो पारस नाथ चौधरी कहते हैं कि यदि "1947 की विभाजन योजना को अस्वीकार कर दिया गया होता, तो आज भारत एक बिल्कुल अलग देश होता या न जाने कितने ‘इंडिया’ होते।
संयुक्त मुस्लिम आबादी काफी अधिक होती, जो संभावित रूप से आबादी का 50 फीसदी नहीं तो कम से कम 40 फीसदी जरूर होती। इस जनसांख्यिकीय बदलाव का देश के सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक ताने-बाने पर गहरा प्रभाव जरूर पड़ता।"
“करीब 200 करोड़ की आबादी वाले एकीकृत भारत में शासन, पहचान और सांप्रदायिक संबंध बहुत अलग होते। ऐसे विविधतापूर्ण और आबादी वाले देश का प्रबंधन करना एक बड़ी चुनौती होती, जिसमें धर्म, भाषा और अन्य आधार पर संघर्ष की बहुत अधिक संभावना होती”, यह कहना है गाजियाबाद के 85 वर्षीय रिटायर्ड सरकारी ऑफिसर एमके अग्रवाल का।
सामाजिक कार्यकर्ता मुक्ता गुप्ता कहती हैं, "धार्मिक और क्षेत्रीय आधार पर सत्ता की गतिशीलता में संघर्ष जारी रहता, जिसके परिणामस्वरूप संभवतः सत्ता के प्रतिस्पर्धी केंद्रों के साथ खंडित शासन संरचनाएं बन गई होतीं। इतिहास बताता है कि इस तरह के परिदृश्य से लगातार लड़ाई, युद्ध और दमनकारी शासन ही बन सकते हैं।"
एक और सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर कहती हैं, “भारत का विभाजन, हालांकि दर्दनाक था, लेकिन, उस समय की राजनीतिक वास्तविकताओं के लिए यह एक व्यावहारिक समाधान था। वास्तविकता यह है कि यह एक जबर्दस्त मानवीय कीमत पर आया, जिसमें धार्मिक पहचान के नाम पर लाखों लोगों की जान चली गई और कई समुदाय टूट गए।"
पीछे मुड़कर देखें तो विभाजन को सही या गलत के रूप में किसी भी एक नजरिए से लेबल करना चुनौतीपूर्ण है। यह एक जटिल और बहुआयामी घटना थी, जिसके दूरगामी परिणाम सभी ने झेले हैं।
दरअसल, विभाजन को सफलता या विफलता के सरल द्विआधारी सोच के ढांचे में फिट नहीं किया जा सकता है। यह एक ऐसी ऐतिहासिक घटना है, जिसे आसानी से वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।
जैसा कि हम वैकल्पिक समय सीमाओं पर विचार करते हैं तो अतीत की वास्तविकताओं और इतिहास की जटिलताओं को पहचानना अति आवश्यक है। भारत का विभाजन उपमहाद्वीप की सामूहिक स्मृति में एक महत्वपूर्ण अध्याय बना हुआ है। पीछे मुड़कर देखने पर कोई भी यह मानने के लिए प्रेरित हो सकता है कि यह पूरा क्षेत्र 18वीं सदी की पिंजरे में बंद मानसिकता के अंतर्गत सैकड़ों तालिबानी शैली के नवाब, राजा और महाराजा, उनके जयचंद और मीर जाफरों के साथ एकदूसरे के खिलाफ लगातार युद्धरत रहते। इससे वंचित वर्गों, दलितों और आदिवासियों की दुर्दशा और भी बदतर होती और देशभर में महिलाओं की हालत बेहद दयनीय होती।
दूसरी ओर, अविभाजित भारत के समर्थकों का तर्क है कि अखंड भारत एक शक्तिशाली महाशक्ति होता। इसके पास विश्व की सबसे मजबूत सेनाओं में से एक होती, जिसे आर्थिक और कूटनीतिक शक्ति का समर्थन प्राप्त होता। अविभाजित भारत एक अधिक समावेशी समाज के रूप में विकसित हो सकता था, जहां अल्पसंख्यक अधिकारों और धार्मिक सद्भाव के लिए सुरक्षित आश्रय होता। संभवतः, भारत आतंकवाद और क्षेत्रीय विवादों के कारण युद्धों के बिना पूरी तरह से अलग परिदृश्य होता, जहां शांति और स्थिरता का माहौल होता। इसके अलावा, अविभाजित भारत वैश्विक मंच पर एक मजबूत और प्रभावशाली आवाज होती, जो विश्व शांति और सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती थी।
बहरहाल, पुराने समाजवादी विचारक राम किशोर के मुताबिक, दोनों देशों की नदियों में काफी पानी बह चुका है, इसलिए विभाजन की त्रासदी से संबंधित यादों और विचारों को अब त्यागना या भूलना ही श्रेयस्कर होगा। इस वक्त हम सब लोकतंत्र के नागरिक होने का आनंद लें, भले ही इस तंत्र में कई खामियां हों।
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