राहुल गांधी का 'ऑपरेशन सिंदूर' भाषण : सियासी चाल या कूटनीतिक चूक?

संसद में कांग्रेस नेता राहुल गांधी का जोशीला भाषण जितने सवालों के जवाब देने आया था, उससे कहीं ज़्यादा प्रश्न खड़े कर गया। उन्होंने 'ऑपरेशन सिंदूर' के बहाने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला बोला, लेकिन क्या यह ‘हमला’ सरकार पर भारी पड़ा, या फिर उनकी अपनी समझदारी पर नए सवालिया निशान छोड़ गया?

राहुल गांधी के इस भाषण की सबसे बड़ी कमी यह है कि उन्होंने सरकार की रणनीतिक फैसलों की आलोचना तो की, लेकिन कोई ठोस विकल्प या समझदार सुझाव नहीं दिया। उन्होंने युद्धविराम और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कथित दबाव का ज़िक्र किया, लेकिन बिना कूटनीति और रक्षा नीति की जटिलता को समझे हुए। यह एक राजनीतिक चाल ज़्यादा लगती है और राष्ट्रहित की चिंता कम।

अंग्रेजी में पढ़ें : Rahul Gandhi's Speech: Political One-upmanship or a Diplomatic Blunder?

जो बहस और सवाल रक्षा पर बनी संसदीय समिति में किए जाने चाहिए थे, उन्हें सार्वजनिक मंच पर उठाना एक गलत परंपरा की शुरुआत है। सिर्फ भारत ही युद्ध की चपेट में नहीं है, दुनिया के तमाम मुल्क संघर्षरत हैं। सरकारी नाकामियों का खुलेआम जिक्र करके सेना और जनता का मनोबल कमजोर होता है। जब सेना का जवान सीमा पर सुनेगा की युद्ध या संघर्ष देश हित में नहीं बल्कि राजनैतिक लाभ उठाने के लिए किया जा रहा है, तो राहुल गांधी बताएं कि सैन्य बलों को क्या संदेश जाएगा।

मोदी सरकार ने कई बार साफ़ कहा है कि भारत ने किसी बाहरी दबाव में आकर युद्धविराम नहीं किया। पर्दे के पीछे क्या है, इसको उजागर करने से किसका फायदा होगा? कूटनीति का एक उसूल होता है—हर बात सार्वजनिक नहीं की जाती। रणनीतिक अस्पष्टता एक यंत्र होता है, जिससे सरकारें विकल्प खुले रखती हैं। राहुल गांधी को यह बात समझनी चाहिए कि दुनियाभर की सरकारें इसी तरह काम करती हैं।

जब राहुल गांधी यह इशारा करते हैं कि भारत ने बाहरी दबाव में आकर कोई कदम उठाया है, तो इससे दुनिया को भारत की कमज़ोरी का संदेश जाता है। यह न तो देश की छवि के लिए अच्छा है, न ही विदेश नीति के लिहाज़ से।

कोई भी सरकार अपने सैन्य अभियानों की कमज़ोरियों को सार्वजनिक नहीं करती, जब तक बिल्कुल ज़रूरी न हो। इससे न केवल जनता का मनोबल बचा रहता है, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी भारत की छवि मज़बूत बनी रहती है। लेकिन, राहुल गांधी का भाषण इस सच्चाई को नज़रअंदाज़ करता दिखा।

लोकतंत्र में सरकारें अपने सैन्य अभियानों को एक उपलब्धि के रूप में पेश करती हैं, यह कोई नई बात नहीं है। लेकिन, गांधी ने 'ऑपरेशन सिंदूर' की आलोचना कर उन मतदाताओं को भी नाराज़ कर दिया, जो इसे देश की ताक़त मानते हैं। आलोचना ज़रूरी है, लेकिन समाधान भी तो बताना चाहिए?

कूटनीति पर्दे के पीछे चलती है। धमकियां, दबाव, और समझौते ज़ाहिर नहीं किए जाते हैं। ऐसे में ट्रंप का नाम लेकर राहुल गांधी ने क्या साबित किया? इससे न केवल भारत की संतुलित विदेश नीति की समझ पर सवाल उठते हैं, बल्कि यह भी लगता है कि वह भारत को एक अलग-थलग देश के रूप में पेश कर रहे हैं। जबकि, भारत आज जी20 समूह की मेज़बानी कर रहा है और वैश्विक दक्षिण का नेतृत्व करने की कोशिश कर रहा है।

राहुल गांधी का भाषण एक राजनीतिक स्टंट ज़्यादा लगा, जिसमें न तो कोई ठोस रणनीति थी, न ही कोई दूरदर्शिता। सरकार की आलोचना लोकतंत्र में जायज़ है, पर जब बात राष्ट्रीय सुरक्षा की हो, तो अतिरिक्त ज़िम्मेदारी और समझदारी की ज़रूरत होती है।

प्रधान मंत्री मोदी सहित कई भाजपा नेताओं ने आजादी के बाद के छह दशकों में रक्षा लापरवाहियों और आत्मसमर्पणों की लंबी सूची प्रस्तुत की है। अगर राहुल गांधी मोदी की तुलना इंदिरा गांधी से करते हैं तो उनको यह भी बताना चाहिए कि 1971 के युद्ध के बाद 93 हजार युद्ध बंदियों के बदले भारत को दिखावटी शांति के झुनझुने के और क्या मिला? दरअसल, बताना तो कांग्रेस को चाहिए कि कश्मीर से लेकर कच्चातिवु टापू हस्तांतरण तक कितने समझौते, किसके दबाव में किए गए। कांग्रेस समेत सभी विपक्षी नेताओं के भाषण, वर्ग विशेष के तुष्टिकरण से प्रेरित हैं। उनमें राष्ट्र हित की भावना का अभाव है और सिर्फ राजनीतिक बढ़त बढ़ाने की चेष्टा करते दिखते हैं।

प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी का यह भाषण न इधर का रहा, न उधर का। न राष्ट्र को कुछ नया सोचने को मजबूर किया, न सरकार को। इतना जरूर है कि देश की सबसे अहम चुनौतियों पर सार्थक चर्चा करने का एक और मौका उनके हाथ से निकल गया।

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