आस्था जरूरी लेकिन धर्मांध अतिशयता है घातक


धर्म के प्रति आस्था एक बात है लेकिन धर्मांधता और उस पर भी धर्मांधता की अतिशयता बिल्कुल अलग बात है। कोई भी प्रेरणा हासिल करने के लिए आस्था जरूरी हो सकती है, लेकिन धर्मांधता की अतिशयता का व्यक्तित्व पर हावी होना बहुत घातक सिद्ध हो सकता है।  

जब धर्मभीरू भक्तों की आस्था अतिशयता में परिवर्तित हो जाती है तो उसके दुष्परिणाम भी प्रकट होने शुरू हो जाते हैं। ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होने के लिए कौन उत्तरदायी है? यह एक यक्ष प्रश्न है, क्योंकि हम किसी को भी इस परिस्थिति का एकमात्र उत्तरदायी नहीं कह सकते।

परन्तु, इससे साधारण जनता ही सबसे अधिक प्रभावित होती है, क्योंकि उस भोलीभाली जनता को कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा स्वयं के आर्थिक लाभ के लिए गुमराह कर दिया जाता है। ऐसे में धर्मांधता की अतिशयता एक प्रकार के पागलपन कारण बन जाती है। ऐसी धर्मांधता लगभग सभी धर्म के अनुयायियों में देखने मिलती है।

भगवान ने जब भी किसी को दर्शन दिए हैं तो वह स्वयं भक्त के पास किसी भी रूप में पहुंच कर दिए हैं। ऐसे असंख्य उदाहरण हैं, जैसे- शबरी के यहां भगवान राम, विभीषण को भगवान हनुमान ने लंका में तथा युद्ध भूमि पर भगवान राम ने स्वयं रावण को दर्शन दिए और उनका परिवार सहित उद्धार किया। श्रीकृष्ण, गोपियों को वृंदावन में तथा पांडवों को हस्तिनापुर में दर्शन देने के लिए स्वयं पधारे। भगवान विष्णु ने भक्त प्रह्लाद को उसके घर पर ही नरसिंह अवतार के रूप में दर्शन दिए। ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं।  

धर्मस्थल अपने इष्ट की पूजा करके एक सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त करने का साधन तो हैं, परन्तु धर्मांधता की अतिशयता अत्यधिक हानिकारक होती है। मनुष्य को अपने मन की शांति को अपने अर्न्तमन में ही खोजना होगा। यदि धर्मांध व्यक्ति समूह धर्मस्थलों में एकत्रित होंगे तो वहां के वातावरण में अशांति उत्पन्न होगी। ऐसे माहौल में, साधक को शांति कैसे प्राप्त हो सकती है। ईश्वर की भक्ति करने के लिए शांत वातावरण चाहिए, तभी योगी और मुनि एकांत स्थान पर साधना करने करने के लिए जाते हैं।

यदि साधक की सच्ची श्रृद्धा से भगवान को निमन्त्रण प्राप्त होगा तो वह अवश्य आएंगे और आते रहे हैं। बाजार में अशुद्ध प्रकार से निर्मित मिष्ठान का क्रय कर भोग लगाने से भगवान कभी प्रसन्न नहीं होंगे। भगवान भोग भी वही ग्रहण करते हैं जो साधक द्वारा स्वयं निर्मित किया गया हो तथा पूर्ण समर्पण के साथ उनको समर्पित किया गया हो।

(लेखक आईआईएमटी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं। ये उनके स्वयं के विचार हैं)



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