श्री राम के सेवक, सखा और स्वामी हैं शिव... !

राम चरित्र का वर्णन करने वाले सबसे प्राचीन आचार्य भगवान शिव माने जाते हैं। उन्होंने राम-चरित्र का वर्णन करोड़ों श्लोकों में किया है।

कहा जाता है कि जब भगवान शिव ने देवता, दैत्य और ऋषि-मुनियों में इन श्लोकों का समान बंटवारा किया तो हर एक के हिस्से में तैंतीस करोड़, तैंतीस लाख, तैंतीस हजार, तीन सौ तैंतीस श्लोक आए। एक श्लोक शेष बचा। देवता, दैत्य और ऋषि इस एक श्लोक को प्राप्त करने के लिए आपस में लड़ने-झगड़ने लगे। यह श्लोक 32 अक्षर वाले अनुष्टुप छन्द में था। झगड़े के बाद शिव ने देवता, दैत्य और ऋषि-मुनियों को दस-दस अक्षर दे दिए। इस तरह 30 अक्षर बंट गए और दो अक्षर फिर भी शेष रह गए। तब भगवान शिव ने कहा कि ये दो अक्षर वह किसी को भी नहीं देंगे। इन्हें वह अपने कण्ठ में रखेंगे। ये दो अक्षर ‘रा’ और ‘म’ अर्थात ‘राम’ हैं। यह ‘राम’ नाम अमर मन्त्र शिव के कण्ठ और जिह्वा के अग्रभाग में विराजमान है।

माना जाता है कि सती के नाम में ‘र’ व ‘म’ कार नहीं है, इसलिए भगवान शिव ने सती का त्याग कर दिया। जब सती ने पर्वतराज हिमाचल के यहां जन्म लिया, तब उनका नाम ‘गिरिजा’ हो गया। इतने पर भी ‘शिवजी मुझे स्वीकार करेंगे या नहीं’–यह सोचकर पार्वती तपस्या करने लगीं। जब उन्होंने सूखे पत्ते भी खाना छोड़ दियाए, तब उनका नाम ‘अपर्णा’ हो गया। ‘गिरिजा’ और ‘अपर्णा’–दोनों नामों में ‘र’ कार आ गया तो भगवान शिव इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने पार्वती को अपनी अर्द्धांगिनी बना लिया। इसी तरह, शिव ने गंगा को स्वीकार नहीं किया, परन्तु जब गंगा का नाम ‘भागीरथी’ पड़ गया, तब शिव ने उनको अपनी जटा में धारण कर लिया। भागीरथी में भी ‘र’ कार है। इस प्रकार राम-नाम में विशेष प्रेम के कारण भगवान शिव दिन-रात राम-नाम का जप करते रहते हैं।

यह भी कहा जाता है कि भगवान शिव को ‘राख’ और ‘मसान’ इसलिए प्रिय हैं क्योंकि राख में ‘र’ और मसान में ‘म’ अक्षर हैं। इनको जोड़ देने से ‘राम’ बन जाता है और भगवान शिव का राम-नाम बहुत प्रिय है। शिव द्वारा श्मशान की राख को अपने शरीर पर लपेटने के पीछे भी एक कहानी है। इस पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार कुछ लोग एक शव को श्मशान ले जा रहे थे और ‘राम-नाम सत्य है’ बोल रहे थे। शिव ने राम-नाम सुना तो वह भी उनके साथ चल दिए। लोगों ने शव को श्मशान में ले जाकर जला दिया और वहां से लौटने लगे। शिव ने सोचा कि बात क्या है, अब कोई आदमी राम-नाम ले ही नहीं रहा है। उनके मस्तिष्क में आया कि उस शव में ही कोई करामात थी, जिसके कारण वे सब लोग राम-नाम ले रहे थे, अत: मुझे उसी के पास जाना चाहिए। शिव ने श्मशान में जाकर देखा कि वह शव तो जलकर राख हो गया है। अत: शिवजी ने उस शव की राख को ही अपने शरीर में लगा लिया और वहीं मसान में रहने लगे।

भगवान शंकर राम के सेवक, स्वामी और सखा, तीनों हैं। राम की सेवा करने के लिए शंकर ने हनुमान का रूप धारण किया। राम ने पहले रामेश्वर में शिवलिंग का पूजन किया, फिर लंका पर चढ़ाई की। अत: भगवान शंकर राम के स्वामी हैं। ‘रामेश्वर’ शब्द का अर्थ करते हुए राम ने कहा ‘राम के ईश्वर।’ शंकर बोले कि नहीं, इसका अर्थ है ‘राम हैं ईश्वर जिसके।’ ब्रह्मा ने इनसे भिन्न अपना मत प्रकट करते हुए कहा कि ये दोनों बराबर हैं। इस प्रकार भगवान शंकर राम के सखा भी हैं।

पद्मपुराण में भगवान श्रीराम भगवान शंकर से कहते हैं कि ’शंकर मेरे हृदय में रहते हैं और मैं शंकर के हृदय में रहता हूं। हम दोनों में कोई भेद नहीं है। मूर्ख एवं दुर्बुद्धि मनुष्य ही हमारे अंदर भेद समझते हैं। हम दोनों एकरूप हैं, जो मनुष्य हमारे अंदर भेद-भावना करते हैं, वे हजार कल्पपर्यन्त कुम्भीपाक नरकों में यातना सहते हैं।’

जब देवताओं और दानवों के द्वारा समुद्र-मंथन किया गया तो सर्वप्रथम उसमें से हलाहल विष प्रकट हुआ। इससे सारा संसार जलने लगा। इस विषम स्थित को देखकर चतुर भगवान विष्णु ने भोले भगवान शिव से कहा कि ‘आप देवाधिदेव और हम सभी के अग्रणी महादेव हैं, इसलिए समुद्र-मंथन से उत्पन्न पहली वस्तु आपकी ही होती है। अत: इसे ग्रहण करें।

भगवान शिव ने सोचा कि यदि सृष्टि में कहीं भी यह विष विद्यमान रहा तो प्राणी अशान्त होकर जलने लगेंगे। इसे सुरक्षित रखने की ऐसी जगह होनी चाहिए कि यह किसी को नुकसान न पहुंचा सके। लेकिन, यदि हलाहल विष पेट में चला गया तो मृत्यु निश्चित है और बाहर रह गया तो सारी सृष्टि भस्म हो जाएगी, इसलिए सबसे सुरक्षित स्थान तो स्वयं उनका कण्ठप्रदेश ही है।

भगवान विष्णु की प्रार्थना पर जब शिव उस महाविष का पान करने लगे तो शिवगणों ने हाहाकार करना प्रारम्भ कर दिया। तब शिव ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा कि भगवान श्रीराम का नाम सम्पूर्ण मन्त्रों का बीज-मूल है। मेरे सर्वांग में यह पूर्णत: प्रविष्ट हो चुका है। अत: अब हलाहल विष हो, प्रलय की अग्नि की ज्वाला हो या मृत्यु का मुख ही क्यों न हो, मुझे इनका किंचित भय नहीं है।’

इस प्रकार राम-नाम का आश्रय लेकर महाकाल ने महाविष को अपनी हथेली पर रखकर आचमन कर लिया किन्तु उसे मुंह में लेते ही भगवान शिव को अपने उदर में स्थित चराचर विश्व का ध्यान आया और वह सोचने लगे कि जिस विष की भयंकर ज्वालाओं को देवता लोग भी सहन नहीं कर सके, उसे मेरे उदरस्थ जीव कैसे सहन करेंगे? यह ध्यान आते ही शिव ने विष को अपने गले में ही रोक लिया। इससे उनका कण्ठ नीला हो गया।

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