लोकनायक श्रीकृष्ण ने जब बृज में अवतार लेकर इस स्थान को अपनी मधुर लीलाओं का केन्द्र बनाया तो यहां की नैसर्गिक सुषमा अनंतगुनी हो गई। प्रेमी रसिक भक्तों की कौन कहे स्वयं महालक्ष्मी भी यहां नित्य निवास करने लगीं। जब समस्त कला गुरुओं के गुरू यहां आ गए तो कलाएं उनसे पृथक कैसे रह सकती थीं। कृष्ण का पूरा जीवन विभिन्न रूपों में गायन, वादन एवं नृत्य कला के साथ जुड़ा हुआ है।
अपने इस स्वभाव के कारण श्रीकृष्ण जब उड़ीसा गए तो वहां जगन्नाथ के रूप में विराजमान हो गए। उनके साथ बलभद्र, सुभद्रा एवं अनंत भक्तों का रेला भी वहीं पहुंचा। वहां के शास्त्रीय नृत्य ओडिशी, संस्कृत भाषा के सुप्रसिद्धि गीत काव्य गीत गोविन्द और महाकवि जयदेव के जरिए राधाकृष्ण की प्रेम लीलाओं का माधुर्य भक्तिपूर्ण तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
बाद में, चैतन्य महाप्रभु जब पुरी पहुंचे तो गीत गोविन्द सुनकर भक्ति भाव में आत्मविभोर हो जाया करते थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को उसके गाने और श्रवण करने का आदेश प्रदान किया। चैतन्य के पूर्व से ही श्री जगन्नाथ मन्दिर सहित अगणित देवालयों में ठाकुर जी के समक्ष सदा से ही इनके पदों का सरस गायन होता रहा है। इन भक्तों ने उनकी इस रचना को भक्ति काव्य माना जिसका प्रतिपाद्य विषय राधाकृष्ण एवं उनकी सखियां थीं।
संगीत, वाद्य और नृत्य कलाएं श्रीकृष्ण को उपास्य पाकर बेहद सफल साबित हुई हैं। संतों ने साहित्य में गायन, वादन, नृत्य तीनों कलाओं के अनेक पारिभाषिक शब्द वाद्य यन्त्रों के नाम, उनके बोल और नृत्य की अनेक मुद्राओं का प्रादुर्भाव किया है। बृज का रास इन कलाओं का ही सम्यक रूप है। रासलीला के माध्यम से देश-विदेश में श्रीकृष्ण भक्ति का सर्वाधिक प्रसार हुआ।
श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कन्ध के 29 से 33 तक पांच अध्यायों यानी रास पंचाध्यायी के अनुसार श्रीकृष्ण ने जैसे ही अपनी बांसुरी उठाई और उसका वादन आरम्भ किया तो सभी गोपियां अपने तन-मन की सुध भूलकर श्रीकृष्ण के समीप वन में ही पहुंच गईं। उस परीक्षा के बाद श्रीकृष्ण ने आनन्दपुलक होकर उनके साथ मंडलाकार स्थित होकर रास रचाया था।
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