जब क्रिकेट और सियासत की गठजोड़ में कुचले जाते हैं लोग...

बेंगलुरु की सड़कों पर जो हुआ, वह कोई हादसा नहीं था बल्कि यह एक सुनियोजित लापरवाही, एक तंत्र की नाकामी और सत्ता-प्रायोजित संवेदनहीनता का ज़िंदा उदाहरण था।

आरसीबी की जीत का जश्न, जो शहरभर में खुशी की लहर बनकर फैला था, चंद मिनटों में चीखों, रौंदे गए जिस्मों और खून से लथपथ हो गया। 11 लोग मारे गए, दर्जनों घायल हुए। और, सबसे शर्मनाक बात यह कि किसी भी वीआईपी को खरोंच तक नहीं आई।

Read in English: Bloody Celebration: When ‘Cricket’ and ‘Politics’ crush people

चाहे वह प्रयागराज का कुंभ हो, हाथरस का सत्संग, मुंबई का पुल हो या अब बेंगलुरु का स्टेडियम, मरता हमेशा आम आदमी ही है। क्योंकि, उसे न तो कोई ‘वीआईपी पास’ मिलता है, न ‘स्पेशल एंट्री’, और न ही उसकी सुरक्षा के लिए कोई बुलेटप्रूफ प्लान बनता है। उसके हिस्से में आती है भीड़, धक्का, लात-घूंसे, और आख़िरकार मौत।

आईपीएल आज सिर्फ खेल नहीं बल्कि अरबों का धंधा है। इसका असली मक़सद जीत या खेल भावना नहीं, बल्कि भीड़ बटोरकर उसे ब्रांड, प्रायोजक और नेताओं को बेच देना है। आरसीबी की जीत का जश्न हो या टीम की रैली, इन आयोजनों का मक़सद सिर्फ और सिर्फ पैसा है। जितनी बड़ी भीड़, उतनी बड़ी ब्रांड वैल्यू। लेकिन, जब यही भीड़ जानलेवा बन जाए, तो आयोजक पल्ला झाड़ लेते हैं।

कर्नाटक क्रिकेट एसोसिएशन ने पहले ही चेतावनी दी थी कि 35 हजार से ज्यादा लोगों को स्टेडियम के बाहर न आने दिया जाए। फिर भी तीन लाख से ज़्यादा लोग वहां कैसे पहुंच गए? कौन थे वे लोग जिन्होंने सड़कों को मौत का मैदान बना दिया? इसका जवाब सीधे-सीधे सत्ता, क्रिकेट बोर्ड और प्रबंधन की मिलीभगत में छिपा है।

राज्य सरकार कहती है कि ‘राजनीतिक दबाव’ के कारण वे भीड़ को नहीं रोक सके। सवाल उठता है कि फिर प्रशासन किसके लिए है? अगर सरकार खुद मान रही है कि वह दबाव के आगे झुक जाती है, तो फिर आम लोगों की जान की गारंटी कौन देगा? पुलिस ने चंद लोगों को निलंबित किया, आरसीबी के एक मार्केटिंग हेड को गिरफ्तार किया, किन असली गुनहगार? वे तो आज भी चैन से अपने एयर-कंडीशन्ड दफ्तरों में बैठे होंगे।

साल में रतनगढ़ मंदिर की 115 मौतें, 2017 में मुंबई एलिफिंस्टन ब्रिज पर 22 मौतें, 2024 में हाथरस में 121 मौतें, 2025 में प्रयागराज में 30 मौतें, और अब बेंगलुरु... हर बार मीडिया हल्ला करता है, जांच कमेटी बनती है, कुछ हफ्तों तक बयानबाज़ी चलती है और फिर सब चुप। न कोई सिस्टम बदलता है और न सोच।

धार्मिक आयोजन हो, फिल्म स्टार का शो हो या राजनैतिक रैली, मरे कोई पर चमकते वीआईपी हैं। बाबाओं के सत्संगों से लेकर राजनेताओं की जनसभाओं तक, आयोजकों को सिर्फ भीड़ चाहिए। सुरक्षा व्यवस्था भगवान भरोसे होती है। और, जब हादसा होता है, तो पुलिस और प्रशासन एक दूसरे पर जिम्मेदारी डालने लगते हैं। जिन बाबाओं के नाम पर लोग जान गंवा देते हैं, वे तो मीडिया में चुपचाप ‘अज्ञात’ हो जाते हैं और जिन राजनेताओं ने भीड़ जुटाने का दबाव बनाया था, वे अगले इवेंट में मंच पर नाचते नजर आते हैं।

हर बार राजनीतिक दल एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराते हैं। हाथरस में योगी सरकार ने जांच को रेंगने दिया, विपक्ष ने इसे वोट की राजनीति में भुनाया। बेंगलुरु में कांग्रेस सरकार सवालों के घेरे में है, और भाजपा ने लपक कर हमला बोला। लेकिन, असलियत यह है कि दोनों पार्टियों के नेता उसी आरसीबी के वीआईपी बॉक्स में बैठकर ताली बजा रहे थे, जिसकी वजह से 11 घर उजड़ गए। यह सवाल अब हर नागरिक को खुद से पूछना होगा कि क्या हम सिर्फ तमाशबीन बनकर अगली भगदड़ का इंतज़ार करेंगे? या फिर इस लापरवाह व्यवस्था से जवाब मांगेंगे?

जब तक आयोजनों का केंद्र आम लोगों की सुरक्षा नहीं बल्कि वीआईपी की सुविधा बनी रहेगी, तब तक ऐसे हादसे रुकने वाले नहीं हैं। भारत की शीर्ष अदालत को इस बार ‘नैतिकता का तकिया’ नहीं, बल्कि ‘दंड का डंडा’ उठाना चाहिए। बीसीसीआई, राज्य सरकार और आयोजकों को सिर्फ नोटिस देकर नहीं, बल्कि फास्ट-ट्रैक सज़ा देकर एक उदाहरण बनाना होगा।

Related Items

  1. खून, रिश्वत और नाइंसाफी के दलदल में फंसी है भारत की पुलिस व्यवस्था!

  1. जब तक गंदगी से जंग न जीते तब तक काहे के ‘स्मार्ट सिटी’!

  1. संसदीय लोकतंत्र पर गंभीर संकट है जातिवादी सियासत



Mediabharti