बेहतर जल प्रबंधन से थमा रेगिस्तान का बढ़ाव

राजस्थान के रेगिस्तान को बढ़ने से रोकने और हरियाली बढ़ाने में इंदिरा गांधी नहर और बेहतर जल प्रबंधन ने अहम भूमिका निभाई है। इस परियोजना ने थार के रेगिस्तान में पानी पहुंचाकर कृषि योग्य भूमि बढ़ाई, वनाच्छादन को प्रोत्साहित किया और स्थानीय वर्षा दर में सुधार किया है।

इससे पहले, मरु भूमि के बृज मंडल की ओर बढ़ने की आशंका थी, लेकिन नहर ने मिट्टी का कटाव रोका, भूजल स्तर ऊपर उठाया और पारिस्थितिकी को संतुलित किया है। आज राजस्थान के कई इलाकों में हरियाली दिखाई देती है, जो साबित करती है कि सही जल नीतियां और टिकाऊ प्रबंधन मरुस्थलीकरण को उलट सकते हैं। यह परियोजना न केवल किसानों के लिए वरदान बनी, बल्कि पूरे क्षेत्र के जलवायु परिवर्तन को भी धीमा किया है।

अंग्रेजी में पढ़ें : Better water management helps halt the march of the desert in Rajasthan

सत्तर के दशक में यह आशंका जताई गई थी कि राजस्थान का थार रेगिस्तान धीरे-धीरे हरियाणा, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ओर सरकता चला जाएगा — और एक दिन ब्रज क्षेत्र, यहां तक कि गोवर्धन भी उसकी चपेट में आ जाएंगे। पर अब, पांच दशक बाद, उपग्रह आंकड़े और पर्यावरण विशेषज्ञ राहत की खबर दे रहे हैं: मरुस्थल का विस्तार उत्तर-पूर्व दिशा में थमा हुआ है।

यह बदलाव अचानक नहीं आया है। यह इंदिरा गांधी नहर परियोजना, बेहतर जल प्रबंधन, और सतत पर्यावरणीय पहलों की एक लंबी और सुनियोजित यात्रा का नतीजा है। राजस्थान की लगभग 700 किलोमीटर लंबी यह नहर पश्चिमी भारत की रेतीली जमीन को हरियाली में बदलने वाली जीवनरेखा बन चुकी है।

इंदिरा गांधी नहर ने श्रीगंगानगर, बीकानेर और हनुमानगढ़ जैसे जिलों को पानी मुहैया कराकर कृषि योग्य भूमि में इजाफा किया, पेड़-पौधों को जीवन दिया और थार के बढ़ते कदमों को रोका है। अब इन इलाकों में धूलभरी आंधियां कम होती जा रही हैं, और भूमि कटाव पर भी लगाम लगी है। भूजल स्तर में सुधार और वर्षा के प्रतिशत में मामूली वृद्धि भी देखने को मिली है।

इस परिवर्तन में स्थानीय वृक्ष प्रजातियों — जैसे खेजड़ी, केर और बबूल — के संरक्षण और बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण अभियानों, जैसे ‘वन महोत्सव’, की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। जल संरक्षण तकनीकों — रूफ वाटर हार्वेस्टिंग, टैंकों का पुनरुद्धार, और ड्रिप सिंचाई — ने भी मरुस्थलीकरण को थामने में योगदान दिया।

हालांकि, रेगिस्तान की रफ्तार थमी है, पर विशेषज्ञ आगाह करते हैं कि खतरा अभी टला नहीं है — बस उसका रुख बदला है। ब्रज क्षेत्र के लिए संकट अब किसी बाहरी रेगिस्तान से नहीं, बल्कि स्थानीय उपेक्षा से उत्पन्न हो रहा है।

तेज रफ्तार शहरीकरण, अंधाधुंध वृक्ष कटाई, पारंपरिक जल स्रोतों की अनदेखी और बेतरतीब भूजल दोहन ने आगरा, मथुरा और गोवर्धन क्षेत्र की पारिस्थितिकी को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। यमुना की बदहाल हालत और सदियों पुराने कुंज-वनों का गायब होना भी उसी क्षरण की कड़ियां हैं।

पर्यावरणविद् डॉ. देवाशीष भट्टाचार्य कहते हैं कि यदि ब्रज भूमि को भविष्य में अर्दध-मरुस्थलीय बनने से बचाना है, तो अभी सख्त कदम उठाने होंगे। वह तालाबों, बावड़ियों और नहरों के पुनर्जीवन, ग्रीन बेल्ट के विकास और यमुना के पुनरुद्धार को नीतिगत प्राथमिकता मानते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में पर्यावरण शिक्षा और शहरी मास्टर प्लानों में ग्रीन ज़ोन का आरक्षण समय की ज़रूरत है।

यह सच है कि रेगिस्तान का बढ़ाव थमा है — यह एक बड़ी उपलब्धि है। लेकिन, यह ‘स्थायी समाधान’ नहीं, केवल एक ‘संभावित राहत’ है। जलवायु परिवर्तन, असंतुलित विकास और लचर स्थानीय प्रशासनिक योजनाएं अगर इसी तरह चलती रहीं, तो थार भले न आए, हम खुद रेगिस्तान जैसे हालात पैदा कर देंगे।

अब वक्त है कि नीतियों से लेकर नागरिक व्यवहार तक हर स्तर पर हरियाली और जल संरक्षण को एक नई प्रतिबद्धता मिले — तभी ब्रज की भूमि बचेगी, और रेगिस्तान की आहट हमेशा के लिए शांत होगी।

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