स्वच्छता अभियान नए भारत का भव्य विजन हैं या अधूरे ख्वाबों की मृगतृष्णा...!

भारत के किसी भी शहर में तशरीफ ले जाएं, यकीनन आपको हर जगह दीवारों पर पेंटिंग्स, पृष्ठभूमि में "आई लव..." होर्डिंग के साथ सेल्फी पॉइंट और निश्चित रूप से सार्वजनिक शौचालयों के बाहर महात्मा गांधी के चश्मे दिखाई देंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2014 के स्वच्छ भारत मिशन के ये प्रतीक स्वच्छ भारत की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम का प्रतिनिधित्व करते हैं। 

साल 2015 में घोषित स्मार्ट सिटी मिशन ने शहरी परिदृश्यों को दक्षता और स्थिरता के भविष्य के केंद्रों में बदलने का वादा जरूर किया था, लेकिन, आज एक दशक के बाद, इन प्रमुख पहलों ने नि:संदेह सुर्खियां बटोरी हैं, लेकिन जमीनी हकीकत आधी-अधूरी सफलताओं, प्रणालीगत विफलताओं और अधूरे वादों की कहानी ही बयां करती है। यह अलग बात है कि दीवारों पर पुताई करने वालों की जमात में अच्छा-खासा इजाफा हुआ है।

Read in English: A decade of ‘hits’ and ‘misses’ of ‘Swachh Bharat’, ‘Smart City Missions’

जानकार लोग बताते हैं कि सरकार लाखों शौचालयों के निर्माण और स्मार्ट तकनीकों के रोलआउट का जश्न तो मना सकती है, लेकिन इन मिशनों में दरारों को नज़रअंदाज़ करना नादानी ही होगी। स्वच्छ भारत मिशन का उद्देश्य खुले में शौच को खत्म करना और स्वच्छता की संस्कृति को बढ़ावा देना है। कागजों पर, मिशन एक शानदार सफलता है। करोड़ों शौचालय बनाए गए, और खुले में शौच की दर में भारी गिरावट आई है। नदियों में शौच करने वालों की संख्या में भी कामयाब कमी हुई है। रेलवे लाइनों पर महिलाएं अब बहुत कम दिखती हैं। गांवों में भी परिवर्तन की बयार बह रही है।

“लेकिन…”, राजनीतिक टिप्पणीकार प्रो. पारस नाथ चौधरी कहते हैं, "शहरों और गांवों में ज्यादातर शौचालय खस्ता हाल हैं। उचित रखरखाव और नियमित सफाई की कमी है। ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां सबसे अधिक आवश्यकता है, वहां, जल आपूर्ति और जल निकासी प्रणालियों की कमी ने कई शौचालयों को अनुपयोगी बना दिया है। मिशन का गुणवत्ता से अधिक मात्रा पर ध्यान केंद्रित करने से लाखों लोगों के पास ऐसा बुनियादी ढांचा है जो खोखली उपलब्धि से अधिक कुछ नहीं है।"

इसके अलावा, यह अभियान स्वच्छता के बारे में जागरूकता बढ़ाने में तो सफल रहा है लेकिन, व्यवहार परिवर्तन बनाए रखना एक कठिन चुनौती है। शहरों में सड़कों पर अभी भी कूड़े के ढेर लगे हुए हैं, नालियां जाम हैं, और सार्वजनिक स्थान अक्सर कचरे से अटे पड़े दिखते हैं।

इसकी वजह शौचालय बनाने के मिशन पर जोर लेकिन अपशिष्ट प्रबंधन और पृथक्करण जैसे प्रणालीगत मुद्दों को संबोधित करने के प्रयासों का तालमेल न बैठ पाना है। विशेषज्ञों का मानना है कि व्यापक दृष्टिकोण का अभाव है और एक स्थायी हल खोजने  के बजाय एक अस्थायी समाधान खोजा जाता है।

जमीनी हकीकत सरकारी ब्रोशर में प्रस्तुत चमकदार दृष्टि से भिन्न है। ट्रैफ़िक की भीड़, प्रदूषण और अपर्याप्त सार्वजनिक सेवाएँ तथाकथित ‘स्मार्ट शहरों’ को अभी भी परेशान करती हैं। इंदौर निवासी राम शंकर बताते हैं कि ‘इंटेलीजेंट ट्रैफ़िक’ प्रबंधन प्रणाली और स्मार्ट जल आपूर्ति नेटवर्क जैसी परियोजनाएं कुछ क्षेत्रों में लागू की गई हैं, लेकिन उनका प्रभाव अक्सर खराब निष्पादन और एकीकरण की कमी के कारण सीमित होता है।

मैसूर की सामाजिक कार्यकर्ता इंदु कहती हैं, "मिशन की सबसे बड़ी खामियों में से एक यह है कि यह प्रणालीगत बदलाव के बजाय दिखावटी बदलाव पर फोकस ज्यादा है। चमकदार मुखौटे और नामित ‘स्मार्ट ज़ोन’, ढहते सीवेज सिस्टम, अनियंत्रित शहरी फैलाव और सिकुड़ते हुए हरे आवरण जैसे गहरे मुद्दों को छिपाते हैं। मिशन की तकनीक पर निर्भरता ने अक्सर मानवीय तत्व को दरकिनार कर दिया है, जिसमें सामुदायिक भागीदारी या संसाधनों तक समान पहुंच पर बहुत कम ध्यान दिया गया है।"

परिणामस्वरूप, कई स्मार्ट सिटी परियोजनाएं उन लोगों की रोजमर्रा की वास्तविकताओं से अलग-थलग दिखती  हैं, जिनकी सेवा के लिए उन्हें बनाया गया है। पारदर्शिता और जवाबदेही दोनों मिशनों के लिए बड़ी बाधाएं बनी हुई हैं। नौकरशाही की अक्षमताओं, विलंबित परियोजनाओं और भ्रष्टाचार की रिपोर्टों ने धन के आवंटन और उपयोग के बारे में सवाल उठाए हैं। मजबूत निगरानी तंत्र की कमी ने घटिया काम को अनियंत्रित होने दिया है, जिससे इन पहलों की विश्वसनीयता कम हुई है।

आगरा में स्मार्ट सिटी मिशन शुरू से ही विवाद में रहा है। शीर्ष अफसरों पर आरोपों की बारिश होती रही है। कुछ लोगों ने तो यह भी कहा कि स्मार्ट सिटी कंपनी और विकास प्राधिकरण के चलते, नगर निगम की आवश्यकता ही क्या है। उदाहरण के लिए, जब सरकार लाखों शौचालयों के निर्माण का दावा करती है, तब इस बारे में बहुत कम डाटा है कि कितने कार्यात्मक हैं या नियमित रूप से प्रबंधित हैं। इसी तरह, स्मार्ट सिटी परियोजनाओं में अक्सर देरी होती है, मास्टर प्लान या तो खराब तरीके से लागू किए जाते हैं या बीच में ही छोड़ दिए जाते हैं। इन मिशनों का पर्यावरणीय प्रभाव चिंता का एक और क्षेत्र है।

पर्यावरणविद डॉ देवाशीष भट्टाचार्य कहते हैं, "स्मार्ट सिटी मिशन के तहत तेजी से शहरीकरण के कारण हरित स्थान खत्म हो गए हैं। इससे प्रदूषण और ‘हीट आइलैंड’ प्रभाव बढ़ गए हैं। बुनियादी ढांचे के विकास पर ध्यान अक्सर पर्यावरणीय स्थिरता की कीमत पर आया है, जिसमें पर्यावरण के अनुकूल प्रथाओं को एकीकृत करने या नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए बहुत कम प्रयास किए गए हैं। जलवायु परिवर्तन से जूझ रहे देश में इस अदूरदर्शी दृष्टिकोण के दीर्घकालिक परिणाम हो सकते हैं। इन चुनौतियों के बावजूद, स्वच्छ भारत व स्मार्ट सिटी मिशन को पूरी तरह से खारिज करना अनुचित होगा। इन अभियानों ने स्वच्छता व शहरी विकास को राष्ट्रीय चर्चा में सबसे आगे ला दिया है।"

फिर भी, लाखों शौचालयों के निर्माण से करोड़ों लोगों, खासकर महिलाओं और हाशिए पर पड़े समुदायों के लिए बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच में सुधार तो हुआ ही है। इसी तरह, स्मार्ट सिटी मिशन ने आधुनिक शहरी नियोजन की नींव रखी है, भले ही इसका क्रियान्वयन त्रुटिपूर्ण रहा हो।



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