ठाकुरजी की इस रसोई में 477 साल से प्रज्ज्वलित है अग्नि...


वृंदावन में एक ऐसा मंदिर है, जहां ठाकुरजी की रसोई तैयार करने के लिए पिछले 477 वर्ष से एक भट्टी लगातार जल रही है। कार्य पूरा होने पर रात को इसमें लकड़ियां डालकर ऊपर से राख ओढ़ा दी जाती है, जिससे अग्नि पूरी तरह से शांत न हो। अगले दिन पुन: उसमें उपले व लकड़ियां डालकर भट्टी की अग्नि के प्रज्ज्वलन को जारी रखा जाता है। हम बात कर रहे हैं यहां के प्रसिद्ध मंदिर श्री राधारमण मंदिर की। यह मंदिर श्री गौड़ीय समाज के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है।

मंदिर में लगने वाले भोग को इसी आग से पकाया जाता है, जिससे ठाकुरजी को भोग लगाया जाता है। इस रसोई में बाहरी व्यक्ति का प्रवेश पूर्णत: वर्जित माना जाता है। सेवायत के शरीर पर सिर्फ धोती के अलावा और कोई अंग वस्त्र नहीं होना चाहिए। रसोई में एक बार जाने के बाद सेवायत पूरा प्रसाद बनाकर ही बाहर आ सकता है। किसी कारणवश उसे बाहर भी जाना पड़ा तो पुन: स्नान के बाद ही उसे मंदिर की इस रसोई में प्रवेश मिल पाता है।

मंदिर में जलने वाली भट्टी का भी एक रोचक इतिहास है। इसके अनुसार, वर्ष 1515 में चैतन्य महाप्रभु वृंदावन आए थे। उस वक्त तीर्थों के विकास की जिम्मेदारी उन्होंने छह गोस्वामियों को सौंपी। इनमें से एक गोपाल भट्ट गोस्वामी थे जो दक्षिण भारत के त्रिचलापल्ली में स्थित श्रीरंगम मंदिर के मुख्य पुजारी के पुत्र थे। चैतन्य महाप्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए गोपाल भट्ट हर रोज द्वादश ज्योतिर्लिंग की आराधना करते थे। दामोदर कुंड की यात्रा के दौरान वह इस द्वादश ज्योतिर्लिंग को वृंदावन में लाए थे। वर्ष 1530 में गोपाल भट्ट को चैतन्य महाप्रभु ने अपना उत्तराधिकारी बनाया और 1533 में चैतन्य महाप्रभु की लीला पूर्ण हुई।

साल 1542 ई. में नृसिंह चतुर्दशी के दिन सालिगराम शिला के पास गोपाल भट्ट की नजर एक सांप पर पड़ी। उन्होंने जब उसे हटाना चाहा तो वह शिला राधारमण के रूप में प्रकट हुई। इसी साल वैशाख पूर्णिमा के दिन मंदिर में इसकी स्थापना की गई। उस दौरान गोपाल भट्ट ने मंत्रों के मध्य अग्नि प्रविष्ट की थी।

इस मंदिर के पीछे प्रचलित एक अन्य कहानी के अनुसार करीब 500 साल पहले इस मंदिर के निर्माण के दौरान जब चैतन्य महाप्रभु इस संसार को छोड़कर चले गए। तब उनके सभी भक्त शोक में डूबे हुए थे। तब उन्हें महाप्रभु चैतन्य जी ने दर्शन दिए और कहा कि उन्हें गोविंद देव और मदन मोहन की सेवा करनी चाहिए। और, इसके लिए उनके प्रिय शिष्य गोपाल भट्ट को गंडकी नदी जाना चाहिए। जहां उन्हें 12 शिलाएं मिलेंगी। उन्होंने यह भी कहा था कि वह दामोदर शालिग्राम की पूजा करके मेरी पूजा करेंगे, क्योंकि मैं हमेशा उसी शालिग्राम में निवास करूंगा।

चैतन्य महाप्रभु के आदेश पर गोपाल भट्ट गंडकी नदी गए। जहां उन्हें 12 शिलाएं मिल गईं और वह सभी 12 शिलाओ को लेकर वृंदावन आ गए और उनकी पूजा करने लगे। एक दिन उन्होंने देखा कि अब सिर्फ 11 शिलाए ही शेष है और जो दामोदर वाली शिला थी वह एक मूर्ति में परिवर्तित हो गई है, और वही मूर्ति आज के वर्तमान समय में राधा रमण मंदिर में स्थापित है। इसीलिए, कहा जाता है कि राधा रमण मंदिर में जो मूर्ति है, उसका आविर्भाव स्वयं हुआ है।

माना जाता है कि वृंदावन के प्राचीन मंदिरों में से एक होने कि वजह से इसका ऐतिहासिक महत्व भी बहुत है। श्री राधारमण मंदिर को लगभग पौने पांच सौ वर्ष पूर्व गोपाल भट्ट गोस्वामी द्वारा बनाया गया था जो कि चैतन्य महाप्रभु के शिष्यों में से एक थे। कहा जाता है कि गोपाल भट्ट गोस्वामी जी 30 साल की उम्र में वृंदावन आए थे और यहीं पर उन्होंने चैतन्य महाप्रभु से आशीर्वाद लिया। यह आशीर्वाद कोपीन यानी चैतन्य जी की लंगोटी, लकड़ी का आसन और एक दुपट्टा के रूप में थे। इन सभी में सिर्फ लकड़ी का आसन ही सुरक्षित बचा है और इसे आज भी मंदिर में देखा जा सकता है।

श्री राधारमण मदिर के बारे में एक अन्य दिलचस्प तथ्य यह है कि यहां मौजूद महज 12 अंगुल के विग्रह में भगवान श्री कृष्ण बांसुरी पकड़े हुए नहीं हैं बल्कि बांसुरी उनके साथ रखी गई है। बिना बांसुरी पकड़े यह उनका एकमात्र विग्रह है। इस मंदिर की एक विशेषता यह भी है कि श्रीविगृह में श्रीकृष्ण के तीन भाव मदनमोहन, गोपीनाथ एवं गोविन्ददेव के एक साथ दर्शन होते हैं। ऐसा अदभुत दर्शन बृज के किसी अन्य मंदिर में नही मिलता है।

यदि आप इस मंदिर की यात्रा सड़क मार्ग से करना चाहते हैं तो आपको दिल्ली से वृंदावन या फिर मथुरा के लिए जाना होगा। आप किसी बस या कार की मदद से राधा रमण मंदिर जा सकते हैं। दिल्ली से राधा रमन मंदिर की दूरी लगभग 155 किलोमीटर है।

यदि आप ट्रेन से यात्रा करना चाहते हैं, तो राधा रमन मंदिर का सबसे पास का रेलवे स्टेशन मथुरा जंक्शन है। यहां आकर आप टैक्सी की मदद से वृंदावन जाकर राधा रमण मंदिर जा सकते हैं। मथुरा से वृंदावन के बीच की दूरी लगभग 12 किलोमीटर है।

यदि आप हवाई यात्रा करते हुए यहां आना चाहते हैं तो निकटतम हवाई अड्डा आगरा में है। आगरा के हवाई अड्डे से वृंदावन की दूरी 76 किलोमीटर है। यहां तक आने के लिए आप टैक्सी का इस्तेमाल कर सकते हैं।

वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को पंचामृत से अभिषेक कर हर साल प्राकट्य उत्सव मनाया जाता है। इस मंदिर के मुख्य श्रीविग्रह का प्राकट्योत्सव हर साल 10 मई को मनाया जाता है।



Related Items

  1. बिहार में चुनाव, सियासी दंगल या लोकतंत्र की अग्नि परीक्षा!

  1. मोहब्बत का 'गुनाह'? वह सच जिससे डरता है समाज...!

  1. पहलगाम में हो भव्य मां सिंदूरी मंदिर का निर्माण




Mediabharti