आज कल राजनयिक भाषा का स्तर गिरता जा रहा है, जैसा कि डोनाल्ड ट्रंप और उनके साथियों ने दिखाया है। उनकी बातचीत का तरीका बहुत ही निचले दर्जे का, अकड़ू, हठी और बेअदबी है। यह एक तरह की तहज़ीब की कमी को दिखाता है, जहां नफ़ासत, शालीनता और समझदारी की जगह सिर्फ़ गुस्ताखी, अशिष्टता और जबर्दस्ती रह गई है। कुछ बयान हादसा नहीं होते, वे जानबूझकर की गई बदतमीजी होते हैं।
कूटनीति कभी छुपे इशारों, नपी-तुली बातों और सजग शब्द-चयन का खेल हुआ करती थी। लेकिन, ट्रंप युग में यह कला गली-कूचों की भाषा में बदल गई है। शब्द अब रिश्ते जोड़ने के बजाय काटने के औज़ार हैं। इसका हालिया उदाहरण ट्रंप के सलाहकार पीटर नवारो का बयान है, जिसमें उन्होंने भारत को ‘ब्राह्मणों’ का देश कहकर रूस से सस्ता तेल खरीदने पर तंज़ कसा।
अंग्रेजी में पढ़ें : Trump’s team, India, and the death of diplomacy…
यह कोई ज़ुबान फिसलना नहीं था। यह बदतमीज़ी थी, सोची-समझी और नस्ली तंज़ से भरी। और सबसे दिलचस्प यह कि जिस शब्द को उन्होंने गाली की तरह इस्तेमाल किया, वही ‘ब्राह्मण’ कभी अमेरिकी बौद्धिक परंपरा की शान हुआ करता था।
टिप्पणीकार प्रो. पारस नाथ चौधरी कहते हैं, "19वीं सदी में ‘बोस्टन ब्राह्मण’ शब्द गर्व का प्रतीक था। इसे द अटलांटिक पत्रिका ने गढ़ा था, और यह बोस्टन के शिक्षित अभिजात वर्ग यानी, दार्शनिकों, लेखकों व सुधी विचारकों आदि के लिए प्रयोग होता था। राल्फ वाल्डो इमर्सन, जिन पर भगवद्गीता का गहरा असर था; हेनरी डेविड थोरो, जिन्होंने गीता के दर्शन को अपनी आत्मा की धुलाई कहा; और वाल्ट व्हिटमैन, जिनकी कविताएं पूर्वी भक्ति की प्रतिध्वनि थीं—ये सब उसी उपाधि के चमकते सितारे थे। ‘ब्राह्मण’ शब्द तब ज्ञान, आत्म-खोज और आध्यात्मिक उत्कर्ष का पर्याय था। आज वही शब्द ट्रंप मंडली की जुबान पर जातिगत ताने में बदल चुका है। यह बदलाव नहीं, पतन है, अमेरिका की अपनी बौद्धिक परंपरा पर पड़ा धब्बा।"
नवारो ने शायद इतिहास नहीं पढ़ा है। भारत की सबसे बड़ी कंपनियां—टाटा, रिलायंस, बिड़ला, महिंद्रा—कहीं से भी ब्राह्मण नहीं हैं। फिर किस ‘ब्राह्मण’ को वे तेल का सौदागर मान बैठे? सोशल मीडिया पर यही सवाल मज़ाक से पूछा गया—“नवारो जी, कौन-सा ब्राह्मण आपको तेल का बिल भेज रहा है?”
कल्पना कीजिए, अगर कोई भारतीय अधिकारी अमेरिकी नीतियों को ‘वॉल स्ट्रीट यहूदियों की चाल’ या ‘दक्षिणी रेडनेक्स की करतूत’ कह देता, तो वाशिंगटन का क्या हाल होता? व्हाइट हाउस में प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर निंदा की बौछार होती, मीडिया आसमान सिर पर उठा लेता। फिर भारत पर जातिगत छींटाकशी क्यों बर्दाश्त की जाए? यही दोहरा मापदंड अमेरिकी विदेश नीति की स्थाई बीमारी है।
ह्यूमर टाइम्स की प्रकाशक मुक्ता बेंजामिन के मुताबिक "कूटनीति ईंट-पत्थरों से नहीं, शब्दों से बनती है। और जब शब्द जहरीले हों, तो पुल नहीं, दीवार खड़ी होती है। नवारो का बयान किसी गहरे विश्लेषण से नहीं उपजा; यह सस्ती राजनीति का नमूना था। यह सिर्फ़ एक आदमी की गलती नहीं, बल्कि ट्रंप टीम की उस मानसिकता का आईना है जिसमें धौंस को ताकत समझा जाता है और तंज़ को ‘स्पष्टवादिता’। वे इमर्सन और थोरो की किताबें उठाकर देखने के बजाय, नारे लिखने में व्यस्त हैं।"
भारत अब वह बच्चा नहीं है, जिसे क्लास में पिछली पंक्ति पर बिठाकर डांटा जा सके। यह 1.4 अरब लोगों का लोकतंत्र और दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। वैश्विक रणनीति का निर्णायक स्तंभ है। इसके साथ रिश्ता बनाना है, तो बराबरी और सम्मान के आधार पर।
नवारो का बयान न सिर्फ़ भारत का अपमान है, बल्कि यह अमेरिका की अपनी बौद्धिक परंपरा का भी मज़ाक है। 19वीं सदी का अमेरिका ज्ञान के भूखे विचारकों का देश था, जो वेदांत और गीता जैसी भारतीय परंपराओं में आत्मिक रोशनी तलाशते थे। आज वही अमेरिका सस्ते राजनीतिक तंज़ों तक सिमट गया है।
अमेरिकी हिंदू संगठनों ने इसे ‘हिंदूफोबिक’ कहा और नवारो को ट्रंप टीम से बाहर करने की मांग की। अमेरिकन हिंदूज़ अगेन्स्ट डिफेमेशन ने इसे उपनिवेशी मानसिकता का नमूना बताया। भारतीय उद्योगपतियों से लेकर सोशल मीडिया यूज़र तक सभी ने अपना तंज़ और व्यंग्य चलाया।
आज अमेरिका को तय करना होगा कि वह किसकी परंपरा का उत्तराधिकारी बनना चाहता है। उस इमर्सन और थोरो की परंपरा का, जो भारत से सीखने को आतुर थे? या फिर नवारो और ट्रंप मंडली की मानसिकता का, जिनके लिए सहयोगी राष्ट्रों को नीचा दिखाना ही राजनीति है?
Related Items
ट्रंप की नई साज़िश भारत के लिए शिकंजा है या सुनहरा मौक़ा!
भारत के पड़ोस में बढ़ती सियासी अस्थिरता
प्राइवेट सेक्टर बन चुका है भारत की अर्थव्यवस्था का धड़कता इंजन