पाकिस्तान आज एक नाज़ुक मोड़ पर खड़ा हुआ है। इसका भविष्य आंतरिक कमज़ोरियों और बाहरी दबावों के जाल में कस कर उलझ गया है।
हालिया ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ ने पाकिस्तान की कमज़ोरियों को बेपर्दा कर दिया। ईरान-इजरायल तनाव, अमेरिकी सदर डोनाल्ड ट्रंप की तरफ़ से फ़ौज के जनरल आसिम मुनिर को दावत-ए-ज़ुहूर, और लोकतांत्रिक तौर पर चुने गए वज़ीर-ए-आज़म शहबाज़ शरीफ़ की बे-इज़्ज़ती, सब मिलकर पाकिस्तान की सियासत को और पेचीदा बना रहे हैं। मुल्क़ की हाइब्रिड सियासत, जिसमें फ़ौज की दख़ल कुछ ज़्यादा ही है, जम्हूरी संस्थानों को कमज़ोर कर रही है, जैसा कि इमरान ख़ान के साथ बद-सलूकी से ज़ाहिर है।
संस्थापक जिन्ना की ज़िद से पैदा हुए इस मुल्क़ की बुनियाद, जो एक ‘पाक’ इस्लामी मुल्क़ की तामीर थी, हिन्दुस्तान के ख़िलाफ़ नफ़रत और मज़हबी कट्टरपंथ पर टिकी हुई है। यह नफ़रत वक़्त-बे-वक़्त दहशतगर्दी की शक्ल में सामने आती है, मगर पड़ोसी मुल्क ने 1948, 1965, 1971, 1999 की जंगों और अब ऑपरेशन सिन्दूर में हार से कोई सबक़ नहीं लिया है। बांग्लादेश का बनना एक सख़्त सबक़ था, और अब बलूचिस्तान उसी राह पर है।
ऑपरेशन सिन्दूर ने पाकिस्तान की फ़ौजी और रणनीतिक कमज़ोरियों को उजागर किया। इसने मुल्क़ को वक़्ती तौर पर शायद एकजुट किया हो, मगर नुक़सान बहुत बड़ा हुआ है। फ़ौजी अड्डों और न्यूक्लियर ठिकानों पर ख़तरा मंडराया, जो पाकिस्तानी सैन्य बलों की नाकामी को साबित करता है।
बांग्लादेश के निर्माण के बाद भी सबक़ न सीखने वाला पाकिस्तान अब बलूचिस्तान में लगातार बग़ावत का सामना कर रहा है। बलोच, सिन्धी, और पश्तून की बेचैनी एक पंजाबी-हकूमत और फ़ौजी सियासत के ख़िलाफ़ विद्रोह की निशानी है।
ट्रंप का मुनीर से नियमित बात करना और शरीफ़ को नज़रअंदाज़ करना यह दिखाता है कि अमेरिकी तंत्र लोकतंत्र से ज्यादा फ़ौजी शासन को तरजीह देता है। इस तरह की सियासत लोकतांत्रिक मूल्यों को खोखला करती है, जैसा कि इमरान ख़ान की क़ैद से जाहिर है। फ़ौज द्वारा रावलपिंडी से हुकूमत चलाना पाकिस्तान को ‘गैरिसन स्टेट’ बनाए रखता है, जहां तरक़्क़ी, और आर्थिक विकास की बजाय सुरक्षा को प्राथमिकता दी जाती है।
पाकिस्तान की आर्थिक हालत बद से बदतर होती जा रही है। इस्लामाबाद में हुकूमतों ने तरक़्क़ी पर ध्यान नहीं दिया, जिससे मुल्क़ बाहरी इमदाद पर निर्भर रहा है। 2023 में तीन अरब डॉलर और 2024 में सात अरब डॉलर का अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से बेलआउट मिला, मगर जीडीपी की रफ़्तार सिर्फ़ 2.4 फीसदी है। क़र्ज़-जीडीपी अनुपात 80 फीसदी से ज़्यादा और महंगाई 9.6 फीसदी है। चीन और अमेरिका की इमदाद ने मुल्क़ को ग़ुलाम बना दिया है।
जिन्ना का ‘पाक’ मुल्क़ का ख़्वाब हिन्दुस्तान के ख़िलाफ़ नफ़रत पर टिका है। यह द्वेष कश्मीर से मुंबई तक दहशतगर्दी की शक्ल में उभरता रहा है। ओसामा बिन लादेन का एबोटाबाद में मिलना इसकी मिसाल है। यह तथ्य भी गौर तलब है कि हिन्दुस्तान के 30 करोड़ मुसलमान पाकिस्तान से बेहतर ज़िंदगी जीते हैं, जबकि पाकिस्तान में मज़हबी हिंसा और अल्पसंख्यकों पर ज़ुल्म बदस्तूर है। ईरान-इजरायल तनाव ने हालात और पेचीदा बना दिए हैं।
किसके लिए घंटियां बज रही हैं? पाकिस्तान का भविष्य इस बात पर निर्भर है कि क्या वह नफ़रत, फ़ौजी हकूमत, और बाहरी ताक़तों की ग़ुलामी से आज़ाद हो सकता है। जम्हूरी हकूमत, आर्थिक क्रांति, और पड़ोसियों से सुलह के बग़ैर, यह मुल्क़ टुकड़ों में बंट सकता है। बलूचिस्तान की बग़ावत और फ़ौज की ज़िद तो यही इशारा दे रही है।

								
		
		
		
		
		
		
			



			
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