'एक प्रवासी भारतीय’ के ‘सत्याग्रही महात्मा' बनने की यात्रा

जनवरी, 9, 1915… अरब सागर की शांत सी लहरों के बीच एक जहाज धीरे-धीरे मुंबई के अपोलो बंदर बंदरगाह की और बढ़ रहा है... समुद्र के किनारे बड़ी तादाद में लोग जहाज की दिशा में टकटकी बांधे "महात्मा, महात्मा" के नारे लगा रहे हैं, "सत्याग्रही" की मद्धम आवाजें माहौल मे जब-तब गूंज उठती हैं... भीड़ का उत्साह बेकाबू होता जा रहा है..., भीड़ के जुनून को देख कर लग रहा है कि वे किसी "देवदूत" का इंतजार कर रही है जो आजादी की 'क़ैद कर दी हवा' उनके लिए खोल देगा, उन्हें बेड़ियों से आजाद कर देगा... लेकिन, दूर जहाज पर लंदन के रास्ते दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौट रहा दुबला-पतला सा एक व्यक्ति चुपचाप खड़ा है, वह देख तो भीड़ की तरफ रहा है, उसकी नजरें भले ही उनकी तरफ है लेकिन मन कहीं और भटक रहा है.., समुद्र शांत है लेकिन उसके मन में बवंडर उठ रहे हैं। उसके मन में लगातार बीते कल के साथ-साथ आने वाले कल को लेकर विचारों का मंथन चल रहा है।


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