चैतन्य महाप्रभु ने घर-घर में पहुंचाई कृष्णभक्ति

मुगलों के शासन के दौरान समाज में आतंक तो व्याप्त था ही, साथ में, समाज रूढ़िवाद और छूआछूत जैसी कठिन समस्याओं में भी जकड़ा हुआ था। उस दौर में हिन्दुत्व की भावना को सुरक्षित रखने के लिए वैष्णव आन्दोलन का प्रचार-प्रसार चल रहा था और उसे पूरे देश में लोकप्रिय बनाने का श्रेय श्री चैतन्य को जाता है।

पंद्रहवीं शताब्दी में बंगक्षेत्र ने उस भक्तिवीर को जन्म दे दिया, जिसने कृष्ण के वृंदावन को पुनः जागृत कर कृष्ण भक्ति को जन-जन में प्रचारित कर दिया। भक्ति आंदोलन की तारीखें गवाह हैं कि पश्चिमोत्तर के कान्हा की बांसुरी की तान को पुनर्जीवित करने का श्रेय पूरब के चैतन्य को ही जाता है। वही चैतन्य, जिन्हें उनके भक्त आज भी ‘महाप्रभु’ के नाम से बुलाते हैं। उनके भक्त आज भी चैतन्य महाप्रभु में दुर्गा या काली के बजाय कृष्ण और राधा के एक रूप को ही देखते हैं।

चैतन्य महाप्रभु का नाम वैष्णव सम्प्रदाय के भक्तियोग शाखा के शीर्श कवियों और संतों में शामिल है। वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की शुरुआत भी चैतन्य महाप्रभु ने की। भजन गायकी की अनोखी शैली प्रचलित कर उन्होंने तब की राजनैतिक अस्थिरता से अशांत जनमानस को सूफियाना संदेश दिया था। लेकिन, वह कभी भी एक जगह टिककर नहीं रहे, बल्कि लगातार देशाटन करते हुए हिंदू-मुस्लिम एकता के साथ ईश-प्रेम और भक्ति की वकालत करते रहे। जात-पांत, ऊंच-नीच की मानसिकता की उन्होंने घोर भर्त्सना की, लेकिन जो सबसे बड़ा काम उन्होंने किया, वह था वृन्दावन को नए सिरे से भक्ति आकाश में स्थापित करना। सच बात तो यह है कि तब लगभग विलुप्त हो चुके वृंदावन को चैतन्य महाप्रभु ने ही नए सिरे से बसाया। अगर उनके चरण वहां न पड़े होते तो नि:संदेह कृष्ण-कन्हाई की यह लीला भूमि, किल्लोल-भूमि केवल एक मिथक बन कर ही रह जाती।

पश्चिम बंगाल के नादिया जिला, तत्कालीन नवदीप, में 19 फरवरी सन 1486 को पिता जगन्नाथ एवं माता शची देवी के घर श्री चैतन्य अवतीर्ण हुए। माता ने शिशु का नाम रखा निमाई और निमाई के विद्वान नाना नीलाम्बर चक्रवर्ती ने विश्वम्भर नाम से उन्हें सुशोभित किया। परन्तु, स्वर्ण की भांति उज्जवल पीत कान्ति होने के कारण समस्त नगरवासी इन्हें गौरसुन्दर, गौरांग या गौरहरि इत्यादि नामों से पुकारते थे। प्यार से निमाई भी बुलाया जाने लगा। कारण यह था कि इनका जन्म नीम के पेड़ के नीचे हुआ था। बचपन से ही निमाई की मुखाकृति सरल, सहज और आकर्षक थी। कैशोर्यावस्था तक निमाई न्याय और व्याकरण में पारंगत हो चले थे।

श्री चेतन्य के अग्रज विश्वरूप कुछ ही समय में विद्वान हो गए थे। और इस असार संसार को नश्वर जानकर 16 वर्ष की अवस्था में उन्होंने गृह त्याग कर दिया था। माता-पिता के साथ घर पर चैतन्य ही अकेले रह गए थे। अधिक विद्वत्ता का परिणाम विश्वरूप का गृहत्याग माता-पिता देख चुके थे। अतः एक मात्र सहायक श्री चैतन्य का अध्ययन बन्द करा दिया गया। इसके परिणामस्वरूप चैतन्य अत्यधिक चंचल हो गए। इससे परेशान माता-पिता ने चैतन्य को पुनः अध्ययन आरम्भ करा दिया। कुछ समय पश्चात पिता का देहावसान हो गया और तब माता व घर की जिम्मेदारी इन्हीं पर आ पड़ी। अध्ययनरत श्री चैतन्य का अल्पायु में ही श्री वल्लभ मिश्र की सुयोग्य कन्या लक्ष्मीप्रिया से विवाह सम्पन्न हुआ। चैतन्य ने कुछ दिन विद्यालय भी चलाया। इसके बाद, पूर्वी बंगाल में श्री चैतन्य ने सर्वप्रथम हरिनाम संकीर्तन का प्रचार-प्रसार आरम्भ किया। इधर, उनकी पत्नी लक्ष्मीप्रिया का सर्पदंश के कारण निधन हो गया। विधवा माता बेचारी अकेली ही एक के बाद एक कष्ट सहन कर रही थी। माता के आग्रह पर श्री चैतन्य का राजपंडि़त श्री सनातन की कन्या विष्णुप्रिया से पुनर्विवाह हुआ।

महज 23 साल की उम्र में पिता का श्राद्ध करने जब निमाई गया पहुंचे तो ईश्वरपुरी नामक एक संत के सानिध्य में कृष्ण नाम का जाप करने लगे। नाम के साथ ही उन्होंने कृष्ण के भाव को भी जी लिया। केशव भारती से दीक्षा लेने के बाद मात्र 24 साल की उम्र में ही निमाई ने संन्यास ले लिया और चैतन्य देव हो गए। गौरांग के भक्तों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। इतना ही नहीं, तब के प्रसिद्ध संत नित्यानंद प्रभु और अद्वैताचार्य महाराज ने भी इनसे दीक्षा ले ली तो जैसे पूरा आर्यावर्त कृष्ण भक्ति में लीन हो गया। निमाई ने इनकी सहायता से अपने आंदोलन में ढोल, मृदंग, झांझ और मजीरा आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया।

संन्यास लेने के बाद जब गौरांग पहली बार जगन्नाथ मंदिर पहुंचे और भगवान की मूर्ति देखते ही भाव-विभोर होकर उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे। अचानक बेहोश हो गए। वहां मौजूद एक विद्वान सार्वभौम भट्टाचार्य ने चैतन्य को उठाया और अपने घर ले आए। शास्त्र-चर्चा छिड़ी तो गौरांग ने भक्ति का महत्त्व ज्ञान से कहीं ऊपर सिद्ध कर सार्वभौम को षड़भुजरूप का दर्शन करा दिया। सार्वभौम सीधे गौरांग के चरणों में गिर पड़े। बाद में सार्वभौम ने गौरांग की शत-श्लोकी स्तुति की जिसे आज चैतन्य शतक के नाम से पहचाना जाता है।

अपनी उपासना विधि में निमाई ने 18 शब्दों का एक तारक-ब्रह्म-महामंत्र शामिल किया।

‘‘हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे । हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे’’।।

उनका तर्क था कि कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार के लिए केवल यही एक मंत्र है। दरअसल, निमाई जब पूजा करते थे तो ऐसा लगता था कि वह साक्षात ईश्वर की आराधना कर रहे हों। इसके बाद चैतन्य ‘चैतन्य महाप्रभु’ बन चुके थे।

तदोपरांत, चैतन्य महाप्रभु दक्षिण के श्रीरंग क्षेत्र व सेतु बंध होते हुए उत्तर की ओर बढ़े और विजयादशमी के दिन वृंदावन के लिए निकले। अपार जनसमुदाय उनके साथ था। कार्तिक पूर्णिमा को वह वृंदावन पहुंचे, जहां आज भी इस दिन गौरांग का आगमनोत्सव मनाया जाता है। गौरांग ने हरिद्वार, प्रयाग होते हुए काशी, हरिद्वार, शृगेरी (कर्नाटक), कामकोटि पीठ (तमिलनाडु), द्वारिका, मथुरा तक पहुंचकर कृष्ण भक्ति का डंका बजा दिया। आखिरी दौर में वह पुरी पहुंचे और महज 47 बरस की आयु में श्रीकृष्ण के परम धाम की ओर चले गए।

चैतन्य और उनके भक्त भजन-कीर्तन में ऐसे लीन और भाव-विभोर हो जाते थे कि उनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती थी। प्रेम, आस्था और रुदन का यह अलौकिक दृश्य हर किसी को स्तब्ध कर देता था। कृष्ण में समर्पण की इस भावनात्मक सम्बन्ध ने चैतन्य महाप्रभु की प्रतिष्ठा को और भी बढ़ा दिया। उड़ीसा के सूर्यवंशी सम्राट गजपति महाराज प्रताप रुद्रदेव तो चैतन्य को अवतार तक मानकर उनके चरणों में गिर गए जबकि बंगाल के एक शासक का मंत्री रूपगोस्वामी तो अपना पद त्यागकर उनके शरणागत हो गया था। गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के आदि-आचार्य माने जाने वाले चैतन्य महाप्रभु ने अनेक ग्रंथों की रचना की, लेकिन आज आठ श्लोक वाले शिक्षाष्टक के सिवा कुछ नहीं है। शिक्षाष्टक में वह कहते हैं कि श्रीकृष्ण ही एकमात्र देव हैं। उनकी तीन शक्तियां परम ब्रह्म, माया और विलास हैं। वह नारद की भक्ति से प्रभावित थे और उन्हीं की तरह कृष्ण-कृष्ण जपते थे। गौरांग पर बहुत ग्रंथ लिखे गए, जिनमें प्रमुख है श्रीकृष्णदास कविराज गोस्वामी का चैतन्य चरितामृत, श्रीवृंदावन दास ठाकुर का चैतन्य भागवत, लोचनदास ठाकुर का चैतन्य मंगल, चैतन्य चरितामृत, श्री चैतन्य भागवत, श्री चैतन्य मंगल, अमिय निमाई चरित और चैतन्य शतक आदि।

चैतन्य महाप्रभु ईश्वर को एक मानते है। उन्होंने नवदीप से अपने छह प्रमुख अनुयायियों को वृंदावन भेजकर वहां सप्त देवालयों की स्थापना कराई। उनके प्रमुख अनुयाइयों में गोपाल भट्ट गोस्वामी बहुत कम उम्र में ही उनसे जुड़ गए थे। रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, जीव गोस्वामी व रघुनाथ दास गोस्वामी आदि उनके करीबी भक्त थे। इन लोगों ने ही वृंदावन में सप्त देवालयों की स्थापना की। मौजूदा समय में इन्हें गोविंददेव मंदिर, गोपीनाथ मंदिर, मदन मोहन मंदिर, राधा रमण मंदिर, राधा दामोदर मंदिर, राधा श्यामसुंदर मंदिर और गोकुलानंद मंदिर आदि कहा जाता है। इन्हें ‘सप्तदेवालय’ के नाम से पहचाना जाता है।

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