जब आधी रात को शुरू हुआ था लोकतंत्र का वह काला अध्याय...


भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र में कहा जाता है कि जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा किए जाने वाला शासन है। जनता इसके लिए अपने प्रतिनिधि चुनती है, जो जनता से ताकत लेकर देश चलाते हैं, लेकिन जब जनता द्वारा चुनी गई सरकार ही निरंकुश हो जाए और सारे संवैधानिक उपायों को ताक पर रखकर अधिनायकवादी बन जाए, तो देश में अराजकता आनी ही होती है। भारत में वर्ष 1975 में ऐसा ही हुआ, जब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सत्ता के मोह और खुद को सबसे ताकतवर मानकर देश में आपातकाल लगाया था।

आपातकाल भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद पर सबसे गहरी चोट थी। आपातकाल के दौरान जनता पर बेइंतहा जुल्म ढाए गए और प्रेस की आजादी छीन ली गई। आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में काले अध्याय के रूप में याद किया जाता है, लेकिन आपातकाल को याद रखना भी जरूरी है ताकि मालूम रहे हैं कि कैसे संविधान को ही हथियार मानकर जनता के खिलाफ प्रयोग किया गया और कैसे इस स्थिति से पार पाया गया।

25 जून 1975 की रात को देश में आपातकाल लगाया गया था। यह आजादी के बाद की बड़ी राजनीतिक घटनाओं में से एक थी। आपातकाल के दौरान देशवासियों के मौलिक अधिकारों को छीन लिया गया। देश को एक बड़े जेल खाने के रूप में तब्दील कर दिया गया।  

26 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की आवाज में ऑल इंडिया रेडियो पर एक संदेश प्रसारित किया गया। इंदिरा गांधी ने कहा, “भाइयों और बहनो! राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। लेकिन, इससे सामान्य लोगों को डरने की जरूरत नहीं है।” इसके साथ ही देश में आपातकाल का दौर शुरू हो गया। इसका प्रावधान देश में आंतरिक अशांति से निपटने के लिए संविधान की धारा 352 के तहत किया गया है। इसके साथ ही प्रेस सेंसरशिप भी लागू कर दी गई।

खास बात यह रही कि इंदिरा गांधी के इस संदेश से पहले ही 25 जून की आधी रात से आपातकाल लागू हो चुका था। आधी रात को ही प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से इस फैसले पर दस्तखत करवा लिए थे। इसके बाद विपक्ष के तमाम नेताओं को जेल में डाल दिया गया। आपातकाल 21 महीने यानी 21 मार्च 1977 तक जारी रहा, जिसे भारतीय लोकतंत्र के सबसे बुरे दौर के रूप में जाना जाता है।

इंदिरा गांधी व उनकी सरकार की विफलता और इलाहाबाद हाईकोर्ट का एक फैसला आपातकाल लगाने की वजहें थीं। दरअसल, साल 1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी रायबरेली सीट से निर्वाचित हुईं और अपने प्रतिद्वंदी विपक्ष के उम्मीदवार राज नारायण को पराजित किया, लेकिन चुनाव में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के आरोप लगे और राजनारायण अदालत चले गए। आरोप सही पाए जाने पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी का निर्वाचन रद्द करने के साथ ही उनके छह साल तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी।

मामला सुप्रीम कोर्ट गया और 24 जून को वहां भी निर्वाचन रद्द करने के फैसले को सही ठहराया गया, लेकिन इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने रहने की छूट दी गई। वह लोकसभा में जा सकती थीं, लेकिन वोट नहीं कर सकती थीं। उधर, जेपी के नाम से मशहूर जय प्रकाश नारायण ने ऐलान किया कि अगर 25 जून को इंदिरा गांधी अपना पद नहीं छोड़ेगी, तो 25 जून को देशव्यापी आंदोलन किया जाएगा। दिल्ली के रामलीला मैदान से जेपी ने 25 जून को रामधारी सिंह दिनकर कि कविता - ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’... को नारे की तरह इस्तेमाल किया।

हालांकि, कोर्ट का निर्णय आने से पहले ही देश के अलग-अलग हिस्सों में तत्कालीन सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार व बेरोजगारी के खिलाफ आंदोलन शुरू हो चुके थे। जैसे ही बिहार से जेपी आंदोलन शुरू हुआ, वैसे ही लोगों में इंदिरा गांधी की सत्ता के खिलाफ रोष बढ़ गया और 24 जून को दिल्ली में बहुत बड़ी रैली हुई। इंदिरा गांधी ने देखा कि उनकी सत्ता को खतरा है, तो उसी रात उन्होंने आपातकाल लागू कर दिया और जितने भी विपक्ष के नेता थे उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

25 जून की शाम को इंदिरा गांधी ने सलाहकारों से मंत्रणा की और तमाम अखबारों के दफ्तरों की बिजली काट दी गई। 21 महीने तक चले इस आपातकाल में कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ। इसके बाद हुए चुनाव में कांग्रेस की सबसे बड़ी हार हुई और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में देश में पहली बार गैर कांग्रेसी की सरकार बनी।

आपातकाल की घोषणा की बाद इसका नकारात्मक असर समाज के हर क्षेत्र पर पड़ा। सभी विरोधी दलों के नेताओं को गिरफ्तार कर अज्ञात जगहों पर भेज दिया गया। सरकार ने मीसा यानी मेंटेनंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट के तहत नेताओं को बंदी बनाया। इसके तहत सभी बड़े नेताओं - मोरारजी देसाई, अटल बिहारी बाजपोयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडीज और जय प्रकाश नारायण को जेल भेज दिया गया।

यही नहीं, चंद्रेशेखर, जो कांग्रेस कार्यकारिणी के निर्वाचित सदस्य थे, उन्हें भी गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। इस दौरान ऐसा कानून बनाया गया कि गिरफ्तार व्यक्ति को कोर्ट में पेश करने और जमानत मांगने का भी अधिकार खत्म कर दिया गया था। नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना उनके मित्रों, परिवारों सहयोगियों तक भी नहीं दी जाती थी। जेल में बंद नेताओं को किसी से मिलने की अनुमति नहीं थी। उनकी डाक भी सेंसर होती थी और मुलाकात के दौरान खुफिया अधिकारी साथ मौजूद रहते थे।

देश में पूरी तरह से जंगलराज कायम हो गया था, जहां केवल एक आदमी की बात चलती थी और किसी के पास कोई अधिकार नहीं रह गया था, यानी आपातकाल के दौरान भारत में एक वीभत्स स्थिति पैदा हो गई। इस दौरान पुलिस का अत्याचार और दमन आम बात थी। पुरुष और महिला बंदियों के साथ अमानवीय अत्याचार किए जाता था। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी को राज नारायण के मुकदमे पर इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का निपटारा करना था। इसलिए, इस फैसले को पलटने वाला कानून लाया गया। इसके लिए संविधान को संशोधन करने की कोशिशें भी की गई।

आपातकाल के दौरान ही संविधान का 42वां संशोधन किया गया। इसमें संविधान के मूल ढांचे को कमजोर करने, उसके संघीय विशेषताओं को नुकसान पहुंचाने और सरकार के तीनों अंगों के संतुलन को बिगाड़ने की कोशिश की गई।संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और को 22 निलंबित कर दिया गया। इसके तहत कानून की नजर में सबकी बराबरी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी और गिरफ्तारी के 24 घंटे की भीतर अदालत के सामने पेश करने के अधिकार को रोक दिया गया।

जनवरी 1976 में अनुच्छेद 19 को भी निलंबित कर दिया गया। इसमें अभिव्यक्ति की आजादी, प्रकाशन करने, संगठन बनाने और सभा करने की आजादी को छीन लिया गया यानी देश के किसी भी नागरिक के पास किसी तरह का अधिकार शेष नहीं बचा था। कई लेखकों और पत्रकारों को भी गिरफ्तार किया गया। इस दौरान ‘किस्सा कुर्सी का’ और ‘आंधी’ जैसी फिल्मों को बैन कर दिया गया और सरकार के सामने न झुकने पर गायक किशोर कुमार को काली सूची में डाल दिया गया।

आपातकाल के सबसे बुरे प्रभावों में से एक था, परिवार नियोजन के लिए अध्यापकों और छोटे कर्मचारियों पर सख्ती। उनका जबर्दस्ती परिवार नियोजन किया गया। परिवार नियोजन और सुंदरीकरण के नाम पर आम लोगों का काफी उत्पीड़न हुआ। आपातकाल में अफरशाहों और पुलिस को जो अनियंत्रण अधिकार मिले थे, उनका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया गया। यही नहीं, सरकार ने इस दौरान यह प्रचार भी किया कि आपातकाल के दौरान भ्रष्टाचार कम हुआ, लोगों में अनुशासन बढ़ा और काम सही समय हो होने लगा, लेकिन आपातकाल लगाए जाने के दो-तीन महीने के बाद ही देश की स्थिति बदतर होने लगी। इस दौरान लोगों की जबर्दस्ती नसबंदी कराई गई। शादी-शुदा पुरुषों के अलावा कई 18 साल के युवाओं की भी नसबंदी करा दी गई।

कुल मिलाकर जो कुछ भी हुआ, उसे जनता ने देखा और सहा। जनता ने इस आपातकाल का जवाब साल 1977 के चुनाव में दिया। इंदिरा गांधी चुनाव हार गईं और देश में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। सच पूछिए तो यह लोगों में लोकतंत्र के प्रति आस्था का परिणाम था, जो आज भी बरकरार है।



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