हाल ही में दक्षिण भारत के एक शहर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गुरु सम्मान कार्यक्रम में भाग लेने का मौका मिला। बड़ी संख्या में डॉक्टर, व्यापारी, प्रबुद्ध नागरिकों द्वारा हिन्दू संस्कृति, गौरव और राष्ट्र के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन उत्साहित कर रहा था।
विचार विमर्श के दौरान आभास हुआ कि 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस ने हिंदुस्तान के सियासी, समाजी और मज़हबी तस्वीर को हमेशा के लिए बदल दिया है। यह ऐतिहासिक वाक़या एक मुकम्मल आंदोलन की शुरुआत थी। इसमें विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों ने अहम भूमिका निभाई। इस आंदोलन का मकसद न सिर्फ़ हिंदू पहचान को मज़बूत करना था, बल्कि समाज के दबे-कुचले तबकों को मुख्यधारा में लाना, मंदिर प्रबंधन को जन-जन से जोड़ना और हिंदू संस्कृति की रौनक़ बढ़ाना भी था। दरअसल, यह सिर्फ़ एक धार्मिक आंदोलन नहीं, बल्कि एक सामाजिक-राजनीतिक क्रांति का इंजन बन गया।
हिंदू धर्म में जाति की दीवारें सदियों से मज़बूत रही हैं, जिसने दलितों और पिछड़ों को मंदिरों और धार्मिक रस्मों से दूर रखा। इसी वजह से कई लोगों ने बौद्ध, इस्लाम या ईसाई धर्म अपना लिया। लेकिन, अब संघ और भाजपा ने इस फ़र्क़ को मिटाने की कोशिश शुरू की है। मिसाल के तौर पर, 2024 में उत्तर प्रदेश के 60 से ज़्यादा मंदिरों में दलित पुजारियों की नियुक्ति हुई, जो एक ऐतिहासिक क़दम था। तमिलनाडु के श्री मुथु मरिअम्मन मंदिर में दलितों को पूजा का हक़ मिला, हालांकि कुछ उच्च जाति के लोगों ने इसका विरोध भी किया। मगर, ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे के साथ यह कोशिश हिंदुओं को जोड़ने और धर्मांतरण रोकने की दिशा में अहम कदम था।
पिछले कुछ वर्षों में मंदिर प्रबंधन को लोकतांत्रिक बनाने की कोशिशें तेज़ हुई हैं। सरकार ने कई प्रसिद्ध मंदिरों का प्रशासन अपने हाथ में लेकर पारदर्शिता बढ़ाई है। 2023-25 के बीच, केंद्र और राज्य सरकारों ने 3,500 करोड़ रुपये से ज़्यादा खर्च कर काशी विश्वनाथ, सोमनाथ, केदारनाथ और बद्रीनाथ जैसे मंदिरों की शान बढ़ाई। वाराणसी का काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, उज्जैन का महाकाल कॉरिडोर और अब वृंदावन में बांके बिहारी मंदिर का कॉरिडोर सिर्फ़ धार्मिक ही नहीं, बल्कि पर्यटन और आर्थिक विकास के केंद्र भी बन रहे हैं।
साल 2025 के प्रयागराज कुंभ मेले के लिए 7,500 करोड़ रुपये का बजट रखा गया था, करोड़ों लोगों ने कुंभ स्नान किया। इसके अलावा, कांवड़ यात्रा और चारधाम यात्रा को बढ़ावा देने के लिए ख़ास रेल और सड़क सुविधाएं शुरू की गई हैं, जो हिंदू तीर्थों को वैश्विक पहचान दिला रही हैं।
इस हिंदू पुनर्जागरण में सामाजिक बदलाव भी शामिल है। सरकार ने दहेजमुक्त सामूहिक विवाह को बढ़ावा दिया है, जैसे उत्तर प्रदेश की ‘मुख्यमंत्री सामूहिक विवाह योजना’, जिसके तहत 2024 में 1.5 लाख से ज़्यादा जोड़ों की शादी हुई। कन्यादान और मुफ्त बस यात्रा जैसी योजनाएं महिलाओं को सशक्त बना रही हैं। पिछड़ों के लिए 27 फीसदी आरक्षण और दलितों के लिए ख़ास योजनाएं समानता की दिशा में क़दम हैं।
साथ ही, हिंदू संगठनों ने लंगर और भंडारों के ज़रिए मुफ्त भोजन वितरण बढ़ाया है। हरिद्वार में सिर्फ़ 2024 में ही 12 लाख से ज़्यादा लोगों ने इन भंडारों से भोजन पाया, जो हिंदू समाज की सेवा भावना को दिखाता है। अमर नाथ यात्रा को सुगम और सुरक्षित बनाया गया है और कैलाश मानसरोवर यात्रा फिर से प्रारंभ हुई है।
एक अहम पहल कथ्यों को सही करना और इतिहास लेखन में जान बूझकर की गई विकृतियों को दूर करने की भी हुई है। अंग्रेज़ों, मुस्लिम शासकों, कांग्रेस और वामपंथियों द्वारा बिगाड़े गए इतिहास को सुधारने के लिए एनसीईआरटी की किताबों में बदलाव किए गए हैं। हिंदी, संस्कृत और क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा दिया जा रहा है।
योग और आयुर्वेद को वैश्विक स्तर पर पहुंचाया गया है, जहां 2025 के अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस में 100 से ज़्यादा देशों ने हिस्सा लिया। वाराणसी की गंगा आरती अब एक वैश्विक आकर्षण बन चुकी है, जो हिंदू संस्कृति की शान को प्रदर्शित करता है। यमुना समेत कई अन्य पवन नदियों के घाटों पर भी आरती का आयोजन हो रहा है।
बीजेपी का खुला एजेंडा धर्मनिरपेक्षता को नया रूप दे रहा है। आलोचक कहते हैं कि यह संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता को कमज़ोर करता है, जबकि समर्थक इसे तुष्टिकरण की राजनीति का अंत मानते हैं। 2024 में अयोध्या में राम मंदिर का अभिषेक, जो बाबरी मस्जिद की जगह बना, इस बदलाव का सबसे बड़ा प्रतीक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे राम राज्य की शुरुआत बताया।
यह हिंदू पुनर्जागरण कई रंगों वाला आंदोलन है, जो पुरानी परंपराओं को नए ज़माने से जोड़ रहा है। यह हिंदुओं को एकजुट करने और सशक्त बनाने की कोशिश है, लेकिन भारत की विविधता पर इसके असर को लेकर बहस अब भी जारी है। क्या यह देश को एक नए युग में ले जाएगा, या फिर समाज में नए तनाव पैदा करेगा—यह वक़्त ही बताएगा।
मोदी सरकार ‘धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र’ की अवधारणा से हटकर एक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित ‘हिंदू राष्ट्र’ के विचार की ओर बढ़ रही है। सरकार इसे ‘भारतीयता’ या ‘सनातन मूल्यों की वापसी’ कहती है, वहीं आलोचक इसे धर्मनिरपेक्ष संविधान के विरुद्ध एक रणनीतिक बदलाव मानते हैं।






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