जब इलाज बन जाए मुनाफे का गंदा धंधा…


मध्य प्रदेश के एक व्यापारी परिवार के सदस्य के इलाज में इतना खर्च हो गया कि सदमे से उसकी मौत हो गई। ऐसे तमाम खौफनाक किस्से, डॉक्टर, हॉस्पिटल, लेबोरेटरीज की जांचों में घोटालों की लंबी लिस्ट हमारे सामने मौजूद हैं।

सही में, भारत के अस्पताल बिक रहे हैं, और उनके साथ बिक रहा है मरीज़ों का भरोसा! एक समय था जब अस्पताल सेवा का मंदिर थे, लेकिन अब ये कॉर्पोरेट जाल में फंस चुके हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां और प्राइवेट इक्विटी दिग्गज अरबों के सौदों में स्वास्थ्य को मुनाफ़े की मशीन बना रहे हैं। इलाज की कीमतें आसमान छू रही हैं, मध्यम वर्ग कर्ज़ में डूब रहा है, और सरकारी अस्पताल बदहाली की कगार पर हैं। यह कॉर्पोरेट कब्ज़ा सिर्फ़ बेड और मशीनें नहीं, बल्कि इंसानियत को भी निगल रहा है। क्या हमारी सेहत अब सिर्फ़ सौदेबाज़ी का सामान बनकर रह गई है?

Read in English: When treatment becomes a profit-driven business…

भारतीय सेहत सेक्टर का ताना-बाना कभी ख़ैराती हॉस्पिटल, सरकारी अस्पतालों और छोटे निजी क्लीनिकों से बुना हुआ था, लेकिन अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों और प्राइवेट इक्विटी के बड़े-बड़े अखाड़ेबाज इस मैदान में उतर आए हैं। सौदे बड़े हैं, दमदार हैं, और मक़सद है इलाज को एक मुनाफ़ा-उन्मुख कारोबार में बदल देना।

ताज़ा सौदे एक तरह से दुनिया की बड़ी फ़ाइनेंस कंपनियों की लिस्ट जैसे हैं। 2024 में, डॉ. अज़ाद मूपन की एस्टर हेल्थकेयर ने क्वालिटी केयर इंडिया के साथ पांच अरब डॉलर का मर्जर किया, जिसे ब्लैकस्टोन और टीपीजी जैसे पीई दिग्गजों का सहारा था। इस सौदे ने भारत की तीसरी सबसे बड़ी हॉस्पिटल चेन बना दी, जिसमें एस्टर के 19 और केयर के 16 अस्पताल, सात राज्यों में फैले हुए हैं।

सिंगापुर की टीमेस्क होल्डिंग्स ने 2023 में मणिपाल हेल्थ में दो अरब डॉलर लगाए। 8,300 से ज़्यादा बेड वाले इस चेन में बड़ा हिस्सा ख़रीदकर इसे लगभग ₹40,000 करोड़ का मूल्य दिया। अगले साल मणिपाल ने पुणे के साह्याद्री हॉस्पिटल्स को ₹6,400 करोड़ में ख़रीद लिया, जिससे इसकी क्षमता 12,000 बेड तक पहुंच गई। ये भारत के सबसे महंगे हेल्थकेयर सौदों में से एक है।

दुनिया की मशहूर इन्वेस्टमेंट फ़र्म केकेआर ने 2024 में केरल के बेबी मेमोरियल हॉस्पिटल में कंट्रोलिंग हिस्सेदारी ले ली। मलेशिया की आईएचएच हेल्थकेयर, जिसने 2018 में फोर्टिस हेल्थकेयर पर क़ब्ज़ा किया था, ने 2023 में मानेसर का मेडोर हॉस्पिटल ₹225 करोड़ में ख़रीद लिया। आज फोर्टिस के 27 अस्पतालों में 7,300 बेड हैं।

ब्लैकस्टोन ने 2024 में हेल्थकेयर ग्लोबल एंटरप्राइज़ में 51 फीसदी हिस्सेदारी लगभग 400 मिलियन डॉलर में ख़रीदी। 2022 से 2024 के बीच, अस्पताल सेक्टर ने एमएंडए और पीई डील के कुल 30 अरब डॉलर में से तक़रीबन 40 फीसदी हिस्सा लिया। 2000 से अब तक इस सेक्टर में 11.19 अरब डॉलर की एफडीआई आ चुकी है।

काग़ज़ पर तो यह निवेश बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर, ज़्यादा पहुंच और आधुनिक टेक्नोलॉजी का वादा करते हैं, मगर हक़ीक़त यह है कि यह कॉर्पोरेटाइजेशन इलाज को एक मुनाफ़ा-केंद्रित कारोबार बना रहा है, जो अमीर-ग़रीब के बीच का फ़ासला और बढ़ा रहा है।

कॉर्पोरेट अस्पताल अब छोटे शहरों और क़स्बों तक पहुंच रहे हैं, मगर यह भी इंसानी भलाई के लिए नहीं, बल्कि नए बाज़ारों को पकड़ने के लिए। यह बड़े मुनाफ़े वाले विभाग—कैंसर, दिल के रोग, और फ़र्टिलिटी—को तरजीह देते हैं, जबकि बुनियादी इलाज और प्रिवेंटिव केयर नज़रअंदाज़ कर दी जाती है। नतीजा—इलाज की क़ीमत आसमान छू रही है और एक मरीज़ का कुछ दिन अस्पताल में रहना भी उसे दिवालिया बना सकता है।

अमेरिका में 2025 की रैंड स्टडी बताती है कि वहां प्राइवेट इंश्योरर, मेडिकेयर के मुक़ाबले 224 फीसदी ज़्यादा क़ीमत चुकाते हैं। हिंदुस्तान में भी यही हाल है। निजी अस्पताल, सरकारी अस्पतालों से कई गुना ज़्यादा वसूली करते हैं, वो भी एक ही इलाज के लिए।

हेल्थ इंश्योरेंस, जिसे बढ़ती क़ीमतों का इलाज बताया गया था, अब खुद इस बीमारी का हिस्सा बन गया है। कॉर्पोरेट अस्पताल और इंश्योरेंस कंपनियां मिलकर बिल बढ़ाते हैं, बेकार के टेस्ट लिखते हैं, और क्लेम का पूरा इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं। ‘कैशलेस हॉस्पिटलाइज़ेशन’ के झांसे में आए मरीज़ बाद में पाते हैं कि क्लेम रद्द हो गया, छिपे हुए चार्ज लग गए, और पॉलिसी के पेंच उन्हें क़र्ज़ में धकेल रहे हैं।

इस बीच सरकारी अस्पताल—जो 70 फीसदी हिंदुस्तानियों का सहारा हैं, बदहाल हैं। हेल्थ बजट जीडीपी का बस 2.1 फीसदी है, जिससे सरकारी अस्पताल हमेशा भीड़भाड़, स्टाफ़ की कमी और पुरानी मशीनों से जूझते हैं। यह लापरवाही दरअसल एक सोची-समझी साज़िश लगती है—लोग मजबूरी में निजी अस्पताल जाएं, जहां मुनाफ़ा, मरीज़ से पहले आता है।

मेडिकल एथिक्स भी अब रफ़्ता-रफ़्ता ग़ायब हो रहे हैं। डॉक्टरों को मुनाफ़ा कमाने वाली मशीन में बदल दिया गया है, और उन पर ‘परफ़ॉर्मेंस टार्गेट’ का दबाव है। ‘स्टार डॉक्टर’ मीडिया में मशहूर होते हैं और लाखों फीस लेते हैं, जबकि जूनियर डॉक्टर कम तनख्वाह में मेहनत-मशक़्क़त करते हैं।

मरीज़ अब इज़्ज़त से नहीं, बल्कि ‘कस्टमर’ की तरह देखे जाते हैं। कई जगह अस्पताल इलाज से पहले एडवांस पेमेंट मांगते हैं, बिल में मनमाने चार्ज जोड़ते हैं, और न भरने पर मरीज़ को रोक तक लेते हैं। डॉक्टर और मरीज़ का भरोसा टूट चुका है—अब रिश्ते में बस सौदेबाज़ी बची है।



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