अबीर-गुलाल, संगीत और नृत्य से भरपूर पारम्परिक लोकोत्सव होली का असली आनंद तो ब्रज में ही मिलता है। कृष्ण नगरी के मंदिरों में एक माह से भी अधिक समय तक चलने वाले इस उत्सव में ठाकुरजी अपने भक्तों के साथ नित्य होली खेलते हैं। होली उत्सवों का शुभारंभ बसंत पंचमी के दिन से ही हो जाता है और समापन धुलैड़ी के दिन होता है। हालांकि, कुछेक इलाकों में इसके एक पखवाड़े बाद तक होली की धूम रहती है।
ब्रज स्थित बरसाने के लाड़लीजी के मंदिर की होली तथा बलदेव के दाऊजी मंदिर का हुरंगा होली के ऐसे अनुपम समारोह हैं जिनका आनंद लेने अपने देश के ही नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में विदेशों से भी पर्यटक इस दौरान यहां आते हैं। बसंत पंचमी के दिन बरसाने के लाड़लीजी मंदिर में रत्नजड़ित स्वर्ण सिंहासन पर बसंती फूलों का बंगला सजाकर श्रीराधाजी के दर्शन कराए जाते हैं। सेवायत पुजारी श्रीराधाजी के चरणों में अबीर-गुलाल अर्पित करके होली उत्सव की शुरुआत करते हैं। देवालय में सेवक गोस्वामी समाज पारम्परिक होली धमारों का गायन करते हैं, जिसे ‘समाज गायन’ कहा जाता है। फागुन शुक्ला अष्टमी के दिन नंदगांव के मंदिर का पुजारी श्रीकृष्ण का सखा प्रतीक बनकर बरसाने के लाड़लीजी मंदिर में पहुंचता है। लाड़लीजी मंदिर में गोस्वामियों की समाज गायन गोष्ठी होती है। इसमें नंदगांव के कृष्ण सखा के रूप में आए पुजारी को भी नृत्य करना होता है और वह नंदगांव की ओर से बरसाने में होली खेलने आने का निवेदन करता है। इसे बरसाने के गोस्वामी सहर्ष स्वीकार करते हैं। अगले दिन नंदगांव के गोस्वामी परिवारों का दल सज-धजकर मोरपंखयुक्त रंगीन पाग बांधकर गाते-बजाते बरसाने पहुंचते है।
बरसाने तथा नंदगांव के गोस्वामियों के बीच हास-परिहास करते हुए एकदूसरे को गुलाल लगाकर स्वागत किया जाता है। इसके पश्चात सभी हुरिहारे देवालय से नीचे रंगीली गली में आ जाते है, जहां बरसाने के गोस्वामियों की महिलाएं राधारानी तथा गोप बालाओं के प्रतीक के रूप में गोटा-किरानी की ओढ़नी तथा लम्बा घूंघट निकाले हाथों में लम्बे-लम्बे लठों के साथ नंदगांव के हुरिहारों का प्रेम से स्वागत करती हैं। गली के नीचे मकानों की छतों पर देश-विदेश के हजारों सैलानी बरसाने की इस अनुपम होली को देखने के लिए एकत्रित होते हैं।
इसी के साथ, हर तरफ चमड़े की ढालों के नीचे छुपते-छुपाते बरसाने की हुरिहारिनों के लठों की मार से अपने आपको बचाते नंदगांव के हुरिहारे आनंद और मस्ती में डूबे नजर आते हैं। ठीक इसी प्रकार दूसरे दिन बरसाने के गोस्वामी भी नंदगांव जाते हैं। यहां भांग और ठंडाई से उनका स्वागत किया जाता है और लठामार होली खेली जाती है।
ऐसी मान्यता है कि श्रीकृष्ण होली के समय बरसाना आए थे। यहां पर कृष्ण द्वारा राधा और उनकी सहेलियों को चिढ़ाने के बाद राधा अपनी सखियों के साथ लाठी लेकर कृष्ण के पीछे दौड़ पड़ीं। तभी से बरसाने में लठामार होली शुरू हुई। बरसाना में लोग हर साल लठामार होली मनाते हैं। निकटवर्ती क्षेत्रों से लोग बरसाने और नंदगांव में इस होली उत्सव को देखने के लिए आते हैं। लठामार होली में महिलां लठ से पुरुषों को मारती है।
ब्रज के मंदिरों की होली उत्सव का एक विचित्र स्वरूप बलदेव के दाऊजी के देवालय का ‘हुरंगा’ है। इसका आयोजन धुलैड़ी के दूसरे दिन होता है। हुरंगा से पहले ब्रज के ठाकुर दाऊदयाल के देवालय में धमार का समाज गायन होता है। मंदिर के सेवकों की महिलाएं अपने देवरों पर डोलची से रंग डालती हैं तथा रंग से भीगे कपड़ों के कोड़े बनाकर उन्हें मारती हैं। पुरुष पिचकारियों से ब्रज बालाओं पर रंग बरसाते हैं। हुरंगा का असली सौन्दर्य उस समय देखने को मिलता है जब ब्रज बालाएं अपने देवरों के कपड़े फाड़कर उनका कोड़ा बनाकर पीटना शुरू करती हैं। हुरंगा में पुरुष अपनी भाभियों से कपड़े फड़वाकर पिटने में गौरव का अनुभव करता है, वे अपने आपको धन्य मानते हैं।
हुरंगा का समापन ‘ध्वजा’ के साथ होता है। हुरंगा के मध्य जो इस ध्वजा को लेकर चला जाता है उसी वर्ग की जीत मान ली जाती है। हुरंगा के आयोजन के समय होली का पारम्परिक लोक गायन भी चलता रहता है। इस आयोजन के लिए कोई न्योता-निमंत्रण नहीं भेजा जाता है। स्त्री-पुरुष निश्चित तिथि और समय पर मंदिर प्रांगण में पहुंच जाते हैं और असंख्य दर्शकों के मध्य रस-विभोरकर आत्मिक संतोष की अनुभूति का सुख प्राप्त करते हैं।
कृष्णा द्वितीया से नवमी तक होली के बाद भी ब्रज के गांव-गांव में हुरंगा के आयोजन होते रहते हैं। इनमें स्त्री-पुरुष समान भाव से इसका रस प्राप्त करते हैं। साथ ही दूसरों को भी रस प्रदान करते हैं। इसी दौरान रात्रि को गांव की चौपालों और खुले मैदानों में ‘चरकुला नृत्य’ होता है। इसमें ब्रज बालाएं 30-40 किलो वजन का भारी भरकम चरकुला जिसमें जलते दीपकों के साथ सिर पर रखकर सुर-लय-ताल पर नृत्य करती हैं। इसे देखने देशी-विदेशी पर्यटक भी इन दूरस्थ गांवों में पहुंचते हैं।
होली के पश्चात ब्रज में नौ दिन तक होली के हुरंगे होते रहते हैं। इनमें हुरिहारे व हुरिहारिनें होली खेलते हैं। कहीं कीचड़ से तो कहीं लाठियों से तथा कहीं-कहीं रंगों से होली खेली जाती है। इसमें गांव के सभी स्त्री-पुरुष समान भाव मेलजोल के साथ होली का भरपूर आनंद लेते हैं। इससे पहले, ब्रज में होलिका दहन के दौरान पंडा आग से होकर निकलकर भक्त प्रह्लाद की भक्ति के दर्शन कराते हैं।
गांठोली का गुलाल कुंड राधा-कृष्ण के फाग से आज भी लालमलाल है। फागुन मास में आज भी कुंड का जल गुलाबी नज़र आता है। गुजरात, महाराष्ट्र आदि स्थानों से आने वाले लोग कुंड पर होली खेलते हैं। गोवर्धन से तीन किमी दूर स्थिर गांठोली गांव का नामकरण होली-लीला से जुड़ा है। यहां होली खेलने के दौरान राधा माधव सिंहासन पर विराजमान थे। तब कुछ सखियों ने उनके वस्त्रों में गांठ लगा दी। इस लीला से ही गांव का नाम ‘गांठोली’ पड़ा। इस स्थल पर राधा-कृण ने सखियों के साथ होली खेली थी। कहा जाता है कि होली खेलने के बाद युगल सरकार व गोपियों ने इस कुंड में अपने अंग वस्त्र धोए थे। इससे कुंड का जल गुलाबी हो गया था। इसीलिए, यह गुलाल कुंड कहलाता है। कुंड के पास वल्लभाचार्य की बैठक है। यहां आने वाले वैष्णव कुंड में गुलाल अर्पित कर एकदूसरे से होली खेलते हैं।
होली के पर्व के साथ अनेक कहानियां जुड़ी हुई हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध कहानी प्रह्लाद की है। प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका की गोद में प्रह्लाद को बिठाकर उसे अग्नि में जलाकर मारने का प्रयास किया था। होलिका को यह वरदान था कि वह अग्नि से नहीं जलेगी, परंतु वह जल मरी और प्रह्लाद श्रीहरि विष्णु की कृपा से बच गया। इसके पश्चात हिरण्यकश्यप की क्रूरता को समाप्त करने के लिए भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लिया और हिरण्यकश्यप को समाप्त कर दिया। तभी से होलिका दहन का प्रचलन शुरू हुआ और होलिका की अग्नि में बुराइयों के समाप्त होने के बाद खुशियां मनाने के लिए अगले दिन रंग खेलने की प्रथा शुरू हुई।
धुलेंड़ी से जुड़ी कहानी के अनुसार, त्रेतायुग के प्रारंभ में विष्णु ने धूलि वंदन किया था। इसकी याद में धुलेंड़ी मनाई जाती है। होलिका दहन के बाद 'रंग उत्सव' मनाने की परंपरा भगवान श्रीकृष्ण के काल से प्रारंभ हुई। तभी से इसका नाम ‘फगवाह’ हो गया, क्योंकि यह फागुन माह में आती है। कृष्ण ने राधा पर रंग डाला था। इसी की याद में रंग पंचमी मनाई जाती है। श्रीकृष्ण ने ही होली के त्योहार में रंग को जोड़ा।
वैदिक काल में इस पर्व को ‘नवान्नेष्टि’ कहा गया है। इस दिन खेत के अधपके अन्न का हवन कर प्रसाद बांटने का विधान है। इस अन्न को ‘होला’ कहा जाता है। संभवत: इस पर्व को होली कहे जाने के पीछे यह भी एक तथ्य होगा।
हिंदू कैलेंडर के अनुसार, होली महोत्सव फाल्गुन पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह त्योहार बुराई की सत्ता पर अच्छाई की विजय का संकेत है। यह ऐसा त्योहार है जब लोग एकदूसरे से मिलते हैं, हंसते हैं, समस्याओं को भूल जाते हैं और एकदूसरे को माफ करके रिश्तों का पुनरुत्थान करते है। यह चंद्र मास, फाल्गुन की पूर्णिमा के अंतिम दिन, गर्मी के मौसम की शुरुआत और सर्दियों के मौसम के अंत में, बहुत खुशी के साथ मनाया जाता है। यह बहुत सारी मस्ती और उल्लास की गतिविधियों का त्योहार है। इस दिन हर किसी के चेहरे पर एक मुस्कान होती है।
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