यदुवंश के राजा शूरसेन के एक पुत्र वसुदेव और एक पुत्री पृथा थे। पृथा को शूरसेन ने अपनी बुआ के संतानहीन पुत्र कुंतीभोज को गोद दे दिया। जहां कुंतीभोज ने इस कन्या का नाम ‘कुंती’ रखा।
इस तरह, कुंती वसुदेव की बहन और भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थी। बाद में वह हस्तिनापुर के नरेश महाराज पांडु की पहली पत्नी बनीं। महर्षि दुर्वासा के एक वरदान के कारण कुंती किसी भी देवता का आवाहन कर सकती थी और उन देवताओं से संतान प्राप्त कर सकती थी। पाण्डु एवं कुंती ने इस वरदान का प्रयोग धर्मराज, वायु एवं इंद्र देवता पर किया।
इस प्रकार, अलग-अलग देवताओ से कुंती ने पुत्र को जन्म दिया। यमराज और कुंती के पुत्र युधिष्ठर, वायु और कुंती के पुत्र भीम तथा इन्द्र और कुंती के पुत्र अर्जुन थे। विवाह से पहले भी कुंती ने सूर्य देव का आवाहन किया था और उसके गर्भ से कवच-कुंडल धारण किए हुए एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम कर्ण था। कर्ण को कुंती ने लोक लाज के भय से एक संदूक में रखकर गंगा में बहा दिया।
कुन्ती एक तपस्वी स्त्री के साथ-साथ हस्तिनापुर राज्य की महारानी और इन्द्रप्रस्थ साम्राज्य की राजमाता भी थीं। पति की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने पुत्रों को हस्तिनापुर में गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा दिलवाई। साथ ही, उन्हें राज्य का अधिकार दिलवाने के लिए प्रेरित भी किया।
विवाह योग्य होने पर कुंती का स्वयंवर रचा गया। इसमें कई राजा और राजकुमारों ने भाग लिया। हस्तिनापुर के राजा पाण्डु को कुंती ने जयमाला पहनाकर अपने पति रूप से स्वीकार कर लिया। कुंती का वैवाहिक जीवन ज्यादा सुखमय नहीं रहा। पांडु को दो पत्नियां कुंती और माद्री थीं।
कहा जाता है कि आखेट के दौरान राजा पाण्डु ने हिरण समझकर मैथुनरत ने एक किदंम ऋषि को मार दिया था और मरते वक्त ऋषि ने शाप दिया था कि तुम भी मेरी तरह मरोगे, जब तुम मैथुनरत रहोगे। इस शाप के चलते पांडु अपनी पत्नियों के साथ जंगल चले जाते हैं।
वह संन्यासियों का जीवन जीने लगे, लेकिन पांडु को हमेशा इस बात की चिंता सताती रहती थी कि उनकी कोई संतान नही है। कई बार वह कुंती को समझाने का प्रयत्न करते कि उसे किसी ऋषि के साथ समागम करके संतान उत्पन्न कर लेनी चाहिए। परन्तु, कुंती इस बात के लिए राज़ी नहीं हुई। फिर एक बार कुंती ने अपने वरदान के बारे में पांडु को बताया। तब पांडु की अनुमति से युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम आदि संतानें उत्पन्न हुईं। कुंती ने माद्री को भी दुर्वासा ऋषि द्वारा दिया गया मंत्र सिखाया, जिससे माद्री ने दो अश्वनी कुमारों का आह्वान किया, जिससे उन्हें नकुल और सहदेव नाम के पुत्रों की प्राप्ति हुई।
एक बार वन में नदी किनारे राजा पांडु अपनी पत्नी माद्री के साथ भ्रमण कर रहे थे। वातावरण अत्यंत रमणीक था और ठंडी शीतल हवा चल रही थी। अचानक वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पांडु का मन चंचल हो उठा और वह मैथुन को प्रवृत हुए लेकिन शापवश उनकी मृत्यु हो गई।
महाभारत युद्ध के लगभग 15 साल बाद कुंती ने गांधारी और धृतराष्ट्र के साथ वन की ओर प्रस्थान किया। संजय भी उनके साथ थे। करीब तीन साल तक वे गंगा किनारे एक घने वन में बनी छोटी सी कुटिया में रहे। एक दिन धृतराष्ट्र गंगा में स्नान करने के लिए गए और उनके जाते ही जंगल में आग लग गई। इसकी वजह से गांधारी, कुंती और संजय को कुटिया छोड़नी पड़ी। वे सभी धृतराष्ट्र के पास यह देखने आए कि कहीं उन्हें कोई नुकसान तो नहीं हुआ है। संजय ने उन सभी को जंगल से चलने के लिए कहा, क्योंकि पूरा जंगल आग से जल रहा था। लेकिन, धृतराष्ट्र ने कहा कि यही वह घड़ी है जब उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होगी। तीनों लोग वहीं रुक गए और उनके शरीर उस आग में झुलस गए। इधर, संजय उन्हें छोड़कर हिमालय की ओर प्रस्थान कर गए और एक संन्यासी की तरह रहने लगे। एक साल बाद नारद मुनि ने युधिष्ठिर को उनके परिजनों की मृत्यु का दुखद समाचार दिया। तब युधिष्ठिर ने वहां जाकर उनके अंतिम संस्कार किए।

 
								 
		 
		 
		 
		 
		 
		
 
			



 
 
 
 
			
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