मौलिक ऊर्जा अवतार महायोगिनी माया का मां कैला देवी मंदिर

मां कैलादेवी मंदिर ‘आदि ऊर्जा’ और ‘महायोगिनी माया’ के अवतार के रूप में प्रतिष्ठित है। स्कंद पुराण के 65वें अध्याय में मां कैलादेवी का विस्तृत विवरण दिया गया है। इस अध्याय में देवी घोषणा करती हैं कि कलयुग में उनका नाम ‘कैला’ होगा और उनके भक्त ‘कैलेश्वरी’ के रूप में उनकी पूजा करेंगे।

कैलादेवी उसी देवी महा योगिनी महामाया का एक रूप हैं, जिन्होंने नंद और यशोदा के घर जन्म लिया और उनकी जगह भगवान कृष्ण ने ले ली। जब कंस ने उसे मारने की कोशिश की तो उसने अपना दैव्य रूप दिखाया और कहा कि जिसे वह मारना चाहता था, वह पहले ही कहीं और जन्म ले चुका है। उस देवी को अब ‘कैला देवी’ के रूप में पूजा जाता है। कुछ मान्यताओं के अनुसार कैलादेवी पूर्वजन्म में हनूमान की माता अंजनी थी, इसलिए उन्हें ‘अंजनी माता’ भी कहा जाता है।

कैला देवी मंदिर राजस्थान का सबसे प्रसिद्ध मंदिर है, जो करौली जिले के कैलादेवी गांव में स्थित है। दुनियाभर में कई लोग उन्हें मौलिक ऊर्जा के अवतार के रूप में पूजते हैं। कैलादेवी मंदिर अपने इतिहास के कारण राजस्थान के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है और भक्त मंदिर में दर्शन करने और कैलादेवी की पूजा करने के लिए बड़ी संख्या में यहां आते हैं।

कैलादेवी मंदिर की मान्यता है कि जो भी यहां मां के दर्शन के लिए आता है, उसकी मनोकामना जरूर पूरी होती है। मंदिर के मुख्य स्थान पर कैलादेवी और चामुंडा देवी की मूर्ति एक साथ विराजमान हैं। बड़ी मूर्ति कैलादेवी की है और उनकी मूर्ति थोड़ी झुकी हुई है।

मूर्ति के झुकाव के पीछे भी एक कहानी प्रचलित है। एक बार देवी का एक भक्त देवी के दर्शन के लिए मंदिर गया। लेकिन, भक्त को बिना देवी के दर्शन कराए ही वापस भेज दिया गया। कैलादेवी अपने मूलस्वरूप से हटकर उस भक्त को, जिस दिशा में वह गया था, उधर निहारने लगीं। उस दिन से देवी का मुख कुछ टेढ़ा है।

चामुंडा देवी की मूर्ति की स्थापना महाराजा गोपाल सिंह ने की थी जिसे वह गंगरौन किले से लाए थे। मंदिर का निर्माण संगमरमर से किया गया है और इसका एक बड़ा प्रांगण है। मंदिर की दीवारों पर अन्य देवताओं के चित्र उकेरे गए हैं। मंदिर परिसर के अंदर, भगवान शिव, भगवान गणेश, भैरव, और हनुमान के मंदिर हैं जिन्हें ‘लंगुरिया’ के रूप में पूजा जाता है। इस मंदिर के निर्माण में लाल पत्थर का इस्तेमाल किया गया है जो कि यहां काफी मात्रा में पाए जाते हैं। इसलिए, यह मंदिर हल्के लाल रंग का दिखाई देता है और रात में यह मंदिर लाइट की फुलझड़ियो के कारण बहुत ही मनोरम प्रतीत होता है।

मंदिर की भव्यता और यहां का खुशनुमा माहौल इसे राजस्थान के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक बनाता है। मंदिर के इतिहास से जुड़ी कई कहानियां प्रचलित हैं और स्थानीय लोगों के अनुसार मंदिर की दिव्यता की कई कहानियां सुनने को मिलती हैं। मंदिर में वार्षिक उत्सव मेला हर साल चैत्र महीने के दौरान आयोजित किया जाता है। यह मेला प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल अष्टमी को लगता है। इसमें लाखों लोग दर्शनार्थ यहां आते हैं। इस मेले को ‘लक्खी मेला’ भी कहा जाता है। इस मेले में मीणा एवं गुर्जर जाति के लोग ‘घुटकन’ या ‘लांगुरिया नृत्य’ करते हैं। मेले में उत्‍तर प्रदेश, मध्‍य प्रदेश, हरियाणा, दिल्‍ली, पंजाब और गुजरात समेत कई राज्‍यों से भारी मात्रा में भक्‍त पहुंचते हैं। इस मेले में महिलाएं हरे रंग की चूड़ियां तथा सिंदूर अवश्य खरीदती हैं। हिन्दू मान्यता के अनुसार इन्हें सुहाग का प्रतीक माना गया है।

कैला देवी मेले के दौरान दो लाख से अधिक तीर्थयात्री इस स्थान पर आते हैं। कैला देवी मेले के वक्त यहां भक्तों के लिए 24 घंटे भंडारा और उनके आराम करने की व्यवस्था की जाती है। किन्तु, कुछ भक्त ऐसे भी होते हैं जो बिना कुछ खाए-पिए और आराम किए इस कठोर यात्रा को पूरा करते है।

ऐसा माना जाता है कि नारद की भविष्यवाणी से डरकर कंस ने अपनी बहन देवकी और बहनोई वासुदेव को कारागृह में डाल दिया था। कारागृह में जैसे ही वासुदेव की आठवीं संतान होने की सूचना कंस को मिली तो उसे मारने वह कारागृह पहुंचा। लेकिन, कंस को पता चला कि आठवीं संतान लड़की है, तो उसे मारने के लिए वह उसे पत्थर की एक शिला पर पटकने वाला था। लेकिन वह कन्या कंस के हाथ से छूटकर आकाश में चली गई और हंसकर बोली कि दुष्ट कंस तुझे मरने वाला जन्म ले चुका है। बाद में यही योगमाया कन्या कैला देवी के रूप में त्रिकूट पर्वत पर विराजमान हुई।

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार त्रिकूट पर्वत में घने जंगल थे और वहां नरकासुर नाम के राक्षस का आतंक फैला बुरी तरह फैला हुआ था। उस राक्षस के आतंक से बचने के लिए केदारगिरी नाम के साधु ने कैला देवी की तपस्या कर देवी को प्रसन्न किया और देवी से इस क्षेत्र को नरकासुर से मुक्त कराने की प्रार्थना की। तदोपरांत, देवी ने नरकासुर का वध किया।

कैला देवी यानी करौली का मंदिर राजस्थान का एकमात्र ऐसा मंदिर है, जहां पर दुर्गा माता का मंदिर भी है और इस मंदिर की अनोखी बात यह है कि यहां पर कभी भी बलि नहीं दी जाती है। यह मंदिर सुबह चार बजे से लेकर के रात को नौ बजे तक खुला रहता है। दूर से आने वाले भक्तों के लिए यहां पर आपको मंदिर के आस-पास में ही ठहरने की व्यवस्था मिल जाएगी। आपको यहां पर कई धर्मशाला और छोटे होटल ठहरने के लिए मिल जाएंगे।

मां कैला देवी के मंदिर में लोग अपने बच्‍चे का पहली बार मुंडन भी कराते हैं और मां को बाल समर्पित करते हैं। कहा जाता जिस किसी परिवार में विवाह होता है तो नवविवाहित जोड़ा जब तक आकर मां का आशीर्वाद नहीं ले लेता तब तक परिवार का कोई सदस्‍य यहां दर्शन करने नहीं आता।

करौली जिले का यह स्थान पूर्ण रूप से सड़क परिवहन से जुड़ा हुआ है। जयपुर-आगरा नेशनल हाइवे स्थित महुआ कस्बे से यहां की दूरी क़रीब 95 किलोमीटर है। महुआ से कैलादेवी के लिए राज्य राजमार्ग 22 का प्रयोग किया जा सकता है। राजस्थान रोडवेज अथवा निजी टैक्सी वाहन के जरिये इस मन्दिर तक पंहुचा जा सकता है।

यदि रेलमार्ग की बात करें तो वेस्टर्न रेलवे जोन के दिल्ली-मुंबई रेलवे लाइन पर सवाई माधोपुर के हिंडोन शहर से यह 55 किलोमीटर तथा गंगापुर शहर से 48 किलोमीटर की दूरी पर है। दूर से आने वाले यात्री यहां आने के लिए हवाई मार्ग को चुन सकते हैं। यहां नजदीकी हवाई अड्डा जयपुर है। कैलादेवी की जयपुर से दूरी क़रीब 200 किमी है, जिसे बस के द्वारा पूरा किया जा सकता है।

ध्यान रहे, अप्रैल से जून के आसपास यहां का अधिकतम तापमान 47 डिग्री रहता हैं। अगर आप ठंड के महीनों मे कैला देवी के दर्शन करने आने वाले हैं तो ठंड मे यहां का तापमान 12 डिग्री के आसपास होता हैं। बारिश के समय यहां का तापमान 26 डिग्री से 32 डिग्री के आसपास होता है। स्थानीय लोगों के अनुसार अक्टूबर से मार्च का महीना माता के दर्शन के लिए सबसे सही होता है।

Related Items

  1. पहलगाम में हो भव्य मां सिंदूरी मंदिर का निर्माण

  1. जहां गिरा माता सती का हृदय, वहीं बसा है अंबा माता का मंदिर

  1. सांपों के लिए भयमुक्त स्थान है श्री गरुड़ गोविन्द मंदिर



Mediabharti