हिंदी कथाकार निर्मल वर्मा हिन्दी साहित्य में नई कहानी आंदोलन के प्रमुख ध्वजवाहक रहे हैं। पहाड़, शहर, यात्राएं और चेहरे जैसे बिम्बों के सहारे गहरी बात कह जाना उनकी प्रमुख विशेषता रही है।
रचनाओं में आधुनिकता का बोध लाने वाले निर्मल वर्मा की कहानियां स्मृतियों के संसार से निकली हैं। वे पाठकों को अतीत की रोमांचक यात्रा पर ले जाती हैं। निर्मल वर्मा की रचनाएं हमारे आस-पास के अनुभवों से, पहाड़ों और पत्तों से, मनुष्य-मनुष्य के बीच के संबंधों से निकली रचनाएं हैं। उनकी रचनाओं में यादों का पिटारा है। उन्हें पढ़ते हुए यह लगता है कि धरती घूम रही है, उस पर अनेक दिशाओं से जल बह रहे हैं और उन पर धूप के टुकड़े झिलमिला रहे हैं।
निर्मल वर्मा का जन्म 3 अप्रैल 1929 को शिमला में हुआ था। उनकी स्कूली शिक्षा शिमला से ही पूरी हुई। दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से उन्होंने इतिहास में एमए किया। इसके बाद उन्होंने दिल्ली में ही कुछ दिन अध्यापन किया। कॉलेज के दिनों से ही उन्होंने कहानियां लिखना शुरू कर दिया था। उन्होंने अपनी पहली कहानी कॉलेज की हिंदी पत्रिका के लिए लिखी थी।
साल 1959 से 1972 के बीच उन्हें यूरोप प्रवास का अवसर मिला। वह प्राग विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या संस्थान में सात साल तक रहे। वहां इन्हें आधुनिक चेक लेखकों की कृतियों का हिंदी अनुवाद करने का उत्तरदायित्व मिला। इनके निर्देशन में ही कैरेल चापेक, जीरी फ्राईड, जोसेफ स्कोवर्स्की और मिलान कुंदेरा जैसे लेखकों की कृतियों का हिंदी अनुवाद सामने आया।
यूरोप से वापसी के बाद निर्मल वर्मा शिमला स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवान्स्ड स्टडीज में फेलो चयनित हुए। यहां रहते हुए उन्होंने ‘साहित्य में पौराणिक चेतना’ विषय पर शोध किया।
‘परिंदे’ निर्मल वर्मा की सबसे प्रसिद्ध कहानी है। ‘रात का रिपोर्टर’, ‘एक चिथड़ा सुख’, ‘पिछली गर्मियों में’, ‘लाल टीन की छत’ और ‘वे दिन’ उनके प्रसिद्ध उपन्यास है। उन्होंने यात्रा वृत्तांत भी लिखे, इनमें ‘धुंध से उठती धुन’ और ‘चीड़ों पर चांदनी’ प्रसिद्ध है। उनके कई कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। उनकी कहानी ‘माया दर्पण’ पर साल 1973 में एक फिल्म भी बनी, जिसे सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म का पुरस्कार मिला। उनकी कलम से कुल पांच फिल्मों की कहानियाँ लिखी गई। वर्ष 1990 में उनका अंतिम उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ प्रकाशित हुआ।
अपने जीवनकाल में ही निर्मल वर्मा श्रेष्ठ पुरस्कारों से सम्मानित हुए। उन्हें 1999 में देश का सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ दिया गया। साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए वर्ष 2002 में पद्म भूषण दिया गया।
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