साहित्यकार ही नहीं, स्वतंत्रता सेनानी भी थे फणीश्वर नाथ 'रेणु'


आज से करीब 100 साल पहले मदुरै में जब महात्मा गांधी देश के लिए विदेशी कपड़े छोड़कर सूत की धोती को धारण कर रहे थे, उसी समय बिहार के अररिया में शीलानाथ मंडल के यहां एक बालक ने जन्म लिया। बच्चे के जन्म पर परिवार को ऋण लेना पड़ा तो परिवार वाले बच्चे को ‘रेनुआ’ पुकारने लगे। यही रेनुआ अपनी लेखनी से हिंदी साहित्य प्रेमियों को ऋणी कर गये।

जी हां…! हम बात कर रहे हैं साहित्यकार फणीश्वर नाथ 'रेणु' की, जिनसे हम सब परिचित हैं। उनका जन्म 1 मार्च 1921 को बिहार के अररिया जिले में औराही हिंगना गांव में हुआ था। एक साहित्यकार के तौर पर उन्हें तमाम लोग जानते हैं, लेकिन एक क्रन्तिकारी के तौर पर हम उन्हें पूरा नहीं जानते हैं।

देश में उस समय आज़ादी की आंधी चल रही थी, ‘रेनुआ’ भी इसी हवा में सांस लेकर बड़े हो रहे थे। उस वक्त आज़ादी के लिए मर-मिटने की चाहत से हर कोई सराबोर हो रहा था।

वह बचपन से ही अंग्रेज विरोधी साहित्य पढ़ने का शौक रखते थे। अंग्रेज विरोधी साहित्य को जब्त करने के लिए एक बार सिपाही उनके घर पर आ धमके। घर में ‘चांद’ पत्रिका का ‘फांसी अंक’, ‘हिन्दू पंच’ का ‘बलिदान अंक’ और ‘भारत’ का ‘अंग्रेजी राज अंक’ था। उस वक्त इन पत्रिकाओं ने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला रखी थीं। मिलने पर घर-भर का जेल में सड़ना तय था। सब डरे हुए थे। रेनुआ ने सारी किताबें बस्ते में डालीं और चल पड़े।

देसी दरोगा ने पूछा - कहां जा रहे हो? 

रेनुआ बोले- स्कूल!

जब शाम को लौट के आए तो सब उनकी चालाकी पर दंग थे। आठ साल के रेनुआ ने सालों तक जेल में सड़ने से सबको बचा लिया था।

आगे चलकर अपने स्कूल में ‘रेणु’ ने वानर सेना का गठन किया और क्रांतिकारियों की यथासंभव मदद करने लगे। यह वही वानर सेना थी जिसकी संस्थापक इंदु यानी इंदिरा गांधी थीं।

नमक सत्याग्रह के दौरान गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया। विरोध में देश बंद था। रेणु ने अपने हेडमास्टर को ही स्कूल खोलने से रोक दिया। अगले दिन हेडमास्टर ने 10 बेंतों की सजा दी। हर बेंत पर वन्दे-मातरम और महात्मा गांधी की जय बोलते रहे। सजा खत्म होने तक पूरा नगर इकठ्ठा हो चुका था। सबने रेणु को कंधे पर उठा लिया और नगर में घुमाने लगे।

उस दिन के बाद से रेणु आंदोलन के अगुआ हो गए। इसके परिणामस्वरूप पूरी वानरसेना को 14 दिन के लिए जेल में डाल दिया गया। इतनी छोटी उम्र में जेल भोगकर रेणु ने अपने बड़े इरादे जाहिर कर दिए थे। इस पहली जेल यात्रा के बाद उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया।

मैट्रिक की पढ़ाई उन्होंने नेपाल के विराटनगर और आगे की पढ़ाई काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से की जहां उन्हें राजनैतिक विचारों को पैना करने का मौका मिला। बनारस उन दिनों समाजवादियों और कम्युनिस्टों का गढ़ था।

इन विचारों का प्रभाव रेणु पर आजीवन रहा। लोकतंत्र के हिमायती और समाजवाद के पक्षधर रेणु हमेशा बराबरी के समाज के लिए लड़ते रहे। नेपाल की राजशाही के खिलाफ सशस्त्र संग्राम में कूद पड़े। इस क्रांति में मौत से नज़र मिला कर लौटे।

देश में जब आपातकाल लगाकर आम लोगो की आज़ादी को कुचलने की कोशिश की गई तो रेणु सबसे पहले इस तानाशाही के विरोध में उतरने वालों में से एक थे। सरकार ने जो सम्मान उन्हें दिए थे, उन्होंने वे वापस कर दिए और जेल चले गए। जेल में ताबियत खराब हो गई, कुछ दिनों बाद वह हमे छोड़कर चले गए। उन्होंने कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया ।

फणीश्वर नाथ रेणु की कलम ने जो लिखा वह उन्होंने खुद जिया भी है। यही रेणु की महानता है। वह जितने साहित्यकार थे, उतने ही क्रांतिकारी और दोनों का उद्देशय एक ही था - एक समता मूलक समाज की स्थापना।



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