राधे-श्याम..., ये दो शब्द अटूट प्रेम का हिस्सा माने जाते हैं। ये दो व्यक्तित्व भले ही एक दूसरे के कभी हो न सके लेकिन फिर भी इनका नाम हमेशा एक दूसरे के साथ ही लिया गया। कृष्ण और राधा के जन्म और उनकी दोस्ती की कहानियां तो बहुत प्रचलित हैं, लेकिन राधा की मृत्यु कैसे हुई और कैसे उनकी प्रेम कथा अपनी परिणिति तक पहुंची, इस बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है।
पद्म पुराण के मुताबिक, राधा वृषभानु नाम के एक गोप की पुत्री थीं। कुछ विद्वान मानते हैं कि राधा का जन्म यमुना नदी के निकट स्थित रावल गांव में हुआ था। बाद में उनके पिता बरसाना में आकर बस गए थे। हालांकि, कुछ लोगों का यह मानना है कि राधा का जन्म बरसाना में ही हुआ था। बरसाना में राधा को ‘लाड़ली’ कहा जाता है।
राधा को राधिका, माधवी, केशवी, रासेश्वरी और राधारानी भी कहा जाता है। वह एक लोकप्रिय और पूजनीय देवी हैं। खासकर, गौड़ीय वैष्णववाद परंपरा में उन्हें सर्वोपरि माना जाता है। उन्हें दिव्य प्रेम, कोमलता, करुणा और भक्ति की देवी के रूप में पूजा जाता है। वह भगवान कृष्ण की शाश्वत पत्नी हैं और उनके साथ उनके अनंत निवास गो-लोक धाम में निवास करती हैं।
नारद-पंचरात्र में कहा गया है कि राधा गोकुलेश्वरी हैं, जो सहज प्रेम की पूर्ण अवतार हैं और महाभाव की प्राप्ति हैं। भगवान श्रीकृष्ण, जो सभी अस्तित्वों के सर्वोच्च ईश्वर हैं और श्री राधा कृष्ण की आंतरिक शक्ति हैं, और वह अपनी भक्ति और सेवा की सम्पूर्ण सम्पदा के साथ अपने सबसे प्रिय श्री कृष्ण की पूजा करती हैं। सम्मोहन-तंत्र में एक स्थान पर देवी दुर्गा कहती हैं कि दुर्गा नाम, जिसके नाम से उन्हें जाना जाता है, वह उनका नाम है। जिन गुणों के लिए मैं प्रसिद्ध हूं, वे उनके गुण हैं। जिस महिमा के साथ मैं विराजमान हूं वह उनकी महिमा है। वह महा-लक्ष्मी है। श्री राधा, श्री कृष्ण की सबसे प्यारी प्रेमिका हैं और उनके पति की शिखा-आभूषण हैं।
हिंदू देवी-देवताओं पर अपने अध्ययन के लिए प्रसिद्ध प्रो. डेविड किंसले के अनुसार, राधा-कृष्ण प्रेम कहानी दिव्य मानवीय संबंधों के लिए एक रूपक है, जहां राधा मानव भक्त या आत्मा है जो वास्तविक अर्थों में लंबे समय तक रहती है। कुछ लोगों द्वारा राधा को अनात्मा के रूपक की तरह भी माना जाता है। भगवान कृष्ण के लिए उनके प्यार और लालसा को आध्यात्मिक विकास और परमात्मा के साथ मिलन के लिए मानव की खोज के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। उनका उल्लेख परमपिता परमात्मा, योगमाया के मूल स्वरूप और दिव्य प्रेम की शक्ति के रूप में किया है जो कि भगवान श्री कृष्ण की मुख्य शक्ति है। उन्हें वृंदावनेश्वरी भी कहा जाता है, जो ग्वालों की रानी और वृंदावन-बरसाना की रानी के रूप में प्रकट हुईं।
राधा के व्यक्तित्व ने कई साहित्यिक कृतियों को प्रेरित किया है और कृष्ण के साथ उनकी रास लीला ने कई प्रकार की प्रदर्शन कलाओं को जन्म दिया है। चैतन्य चरितामृत में कृष्णदास कविराज गोस्वामी कहते हैं कि राधा और कृष्ण दोनों एक आत्मा हैं, जो अलग-अलग शरीरों का रूप लेते हैं, ताकि वे रस के विभिन्न भाव को संजो सकें।
राधा कृष्ण के साथ अर्द्धनारी के रूप में हिंदू कलाओं में भी दिखाई देती हैं। यह एक प्रतीक है, जहां छवि का आधा हिस्सा राधा और दूसरा आधा हिस्सा कृष्ण का है। इस अर्द्धनारी स्वरूप को अर्द्धराधवेंद्रधारा मूर्ति के रूप में भी जाना जाता है और यह राधा और कृष्ण की संपूर्ण मिलन और अविभाज्यता का प्रतीक है। राधा को कृष्ण की मूल शक्ति माना जाता है। निम्बार्क सम्प्रदाय में सर्वोच्च देवी और चैतन्य महाप्रभु के आगमन के बाद गौड़ीय वैष्णव परंपरा के भीतर भी उन्हें कृष्ण की मूल शक्ति माना गया है।
एक मत के अनुसार राधा सिर्फ काल्पनिक चरित्र है। इसका कारण यह है कि भागवत के सिर्फ दशम स्कंद में ही मात्र एक जगह पर महारास के दौरान राधा के बारे में जिक्र किया गया है। अलग-अलग ग्रंथों में राधा और कृष्ण के बारे में विविध वर्णन हैं। एक जगह यह भी लिखा गया है कि कृष्ण की चौसठ कलाएं ही उनकी गोपियां थीं और राधा उनकी महाशक्ति यानी राधा और गोपियां कृष्ण की ही शक्तियां थीं जिन्होंने स्त्री रूप में जाना गया।
राधा और कृष्ण के प्रेम का एक वर्णन गर्ग संहिता में मिलता है। गर्ग संहिता के रचयिता यदुवंशियों के कुलगुरू ऋषि गर्गा मुनि थे। इस संहिता में राधा और कृष्ण की लीलाओं के बारे में विस्तार से बताया गया है। इसमें राधा की माधुर्य-भाव वाली लीलाओं का वर्णन है। वैसे, श्रीमद्भगवद्गीता में जो कुछ सूत्ररूप से कहा गया है, गर्ग-संहिता में भी उसी का बखान किया गया है।
कृष्ण के वृंदावन छोड़ने के बाद से ही राधा का वर्णन उत्तरोत्तर बहुत कम हो जाता है। राधा और कृष्ण जब आखिरी बार मिले थे तो राधा ने कृष्ण से कहा था कि भले ही वह उनसे दूर जा रहे हैं, लेकिन मन से कृष्ण हमेशा उनके साथ ही रहेंगे। इसके बाद कृष्ण मथुरा गए और कंस और अन्य राक्षसों को मारने का अपना काम पूरा किया। इसके बाद प्रजा की रक्षा के लिए कृष्ण द्वारिका चले गए और ‘द्वारकाधीश’ के नाम से लोकप्रिय हुए।
ब्रह्मवैवर्त पुराण, श्री गर्ग संहिता और गीत गोविंद में भी राधा-कृष्ण के भांडीर वन में विवाह का वर्णन मिलता है। यमुना किनारे करीब छह एकड़ परिधि में फैले भांडीर वन में एक बड़ी संख्या में कदंब व कई अन्य तरह के प्राचीन वृक्ष मौजूद हैं। यहां स्थित मंदिर में राधा और श्याम की जोड़ी विग्रह रूप में विराजमान है। इस मूर्ति में कृष्ण का दाहिना हाथ राधा की मांग भरने का भाव प्रदर्शित कर रहा है। मंदिर प्रांगण में ही एक प्राचीन वट वृक्ष है। लोकोक्तियों के अनुसार इसी वृक्ष के नीचे राधा और कृष्ण का गंधर्व विवाह हुआ था।
कई लोक कथाओं के अनुसार जीवन के अंतिम दिनों में राधा ने अपना घर छोड़ दिया था और कृष्ण से मिलने द्वारिका चली गईं। जब ये दोनों वहां मिले तो इनका संवाद शब्दों से नहीं, बल्कि भावों के माध्यम से हुआ। दोनों जानते थे कि मन से दोनों जुड़े हुए हैं, लेकिन राधा को लगा कि कृष्ण के करीब रहना उस तरह का सुख नहीं दे रहा है, जिस तरह उन्हें तब लगता था जब वह मन से कृष्ण से जुड़ी हुई थीं। राधा बिना कुछ कहे महल छोड़कर चली गईं। अंतिम क्षणों में कृष्ण ने राधा की अंतिम इच्छा पूरी की, जिसमें उन्होंने राधा को सबसे मधुर बांसुरी की धुन बजाकर सुनाई। इसके बाद ही राधा कृष्ण में विलीन हो गईं। किसी प्रामाणिक ग्रंथ या साहित्य में राधा की मृत्यु का विवरण नहीं मिलता है।
गर्ग संहिता के गोलोक खंड में देवर्षि नारद और मिथिला नरेश के बीच एक संवाद है। इसके अनुसार श्रीदामा के शाप के कारण राधा और कृष्ण को 100 सालों का वियोग झेलना पड़ा था। संहिता के विश्वजीत कांड के 49वें अध्याय में एक और कहानी लिखी गई है। इसके अनुसार राधा और कृष्ण 100 साल बाद कुरुक्षेत्र में सूर्य ग्रहण के दौरान होने वाले एक यज्ञ में मिले थे। इस दौरान राधा को योगेश्वर भगवान अपनी रानियों और गोपियों के साथ द्वारिका ले गए। यहां सभी ने राजसूय यज्ञ में हिस्सा लिया जिसे राजा उग्रसेन ने कराया था। उस समय राधा कृष्ण के साथ उनकी पत्नी के तौर पर मौजूद रहीं और यहीं राधा का विवाह कृष्ण से हुआ। सिर्फ इस यज्ञ को ही राधा और कृष्ण के विवाह का प्रमाण माना जाता है।
राधा और कृष्ण का विवाह न होने का एक कारण नारद का शाप भी माना जाता है। रामचरित मानस के बाल कांड के अनुसार, लक्ष्मी के स्वयंवर में नारद भी जाना चाहते थे। भगवान विष्णु ने नारद के साथ छल करते हुए उन्हें खुद का स्वरूप देने के बजाय एक वानर का रूप दे दिया। इसकी वजह से स्वयंवर में नारद का उपहास हुआ। जब उन्हें विष्णु की इस शरारत का पता चला तो वह बैकुंठ पहुंचकर उनसे बहुत नाराज हुए और शाप दिया कि उन्हें भी पत्नी का वियोग सहना होगा। यही वजह है कि राम अवतार में उन्हें सीता का वियोग सहना पड़ा और कृष्ण अवतार में राधा से उनका विवाह न हो सका।
एक मत यह भी है कि राधा ने ही श्रीकृष्ण के साथ विवाह के लिए मना किया था। राधा यशोदापुत्र कान्हा से प्रेम करती थीं, लेकिन जब वह मथुरा गए तो राधा खुद को महलों में जीवन के लिए उपयुक्त नहीं मान सकीं। इधर, कन्हैंया के शुभचिंतक चाहते थे कि वह एक राजकुमारी से विवाह करें। इसलिए, राधा ने श्रीकृष्ण से विवाह न करने की ठान ली।
यह भी कहा जाता है कि राधा को यह महसूस हो चुका था कि श्रीकृष्ण भगवान का एक अवतार हैं। वह खुद को उनका एक भक्त मानने लगीं। राधा श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन हो चुकी थीं। वह भगवान से विवाह नहीं कर सकती थीं।
इस प्रकार यदि देखा जाए तो प्रागैतिहासिक काल की इस अमर प्रेम कथा के बारे में कई उक्तियां, लोकोक्तियां और मान्यताएं प्रचलित हैं। सत्य जो भी रहा हो लेकिन श्रीकृष्ण और राधा का अमर प्रेम आज भी एक मापदंड बना हुआ है।
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