हे त्रेता के राम...! तुम कलियुग में कब आओगे…?

हजारों वर्ष पूर्व त्रेता युग में भगवान राम अवतरित हुए थे। उन्होंने विश्व के समक्ष एक आदर्श पुत्र की छवि प्रस्तुत की। एक ऐसा पुत्र, जिसने अपने पिता के वचन की मर्यादा की रक्षा के लिए राजगद्दी के सुख और वैभव का त्यागकर 14 वर्ष के लिए अपने अनुज लक्ष्मण एवं पत्नी सीता संग वनवास को चुना।

वनवास के अन्त में उनका लक्ष्य अपनी पत्नी की रक्षा के लिए वानरों और भालुओं की सेना के साथ विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली असुर लंकापति रावण से युद्ध करना था। युद्धकाल में ही उन्होंने अपने अनुज लक्ष्मण के चेतना शून्य होने पर, उसको अपनी गोदी में लिटाकर शीघ्र स्वस्थ होने की प्रार्थना की अन्यथा अपनी देह त्याग के लिए वचनबद्ध हो गए। रावण वध के उपरान्त, श्रीराम ने सोने की लंका निःस्वार्थ भाव से विभीषण को सौंप दी। ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के लिए करोड़ों दीपक प्रतिवर्ष प्रज्ज्वलित होते हैं। परन्तु, ये समस्त कार्य त्रेता युग के आदर्श पुत्र राम ने किए।

कलियुग में माता-पिता त्रेता युग के राम सदृश पुत्र उत्पन्न होने का सिर्फ स्वप्न देख सकते हैं। ईश्वर की कृपा से पुत्र प्राप्ति के पश्चात उसका लालन पालन व शिक्षा, अपना कर्तव्य समझकर पूर्ण करते हैं और, शनै:-शनै: माता-पिता का स्वप्न मृगमरीचिका में बदल जाता है। जिस राम की कल्पना में वे अपने जीवन के 25-30 वर्ष यूं ही व्यतीत कर देते हैं, तत्पश्चात उनको यह अहसास होता है कि उनका पुत्र त्रेता युग का ‘राम’ नहीं वरन् कलियुग काल में पैदा हुई संतान है। माता-पिता अपनी वृद्धावस्था से पूर्व पुत्र का विवाह, अपनी संचित समस्त धनराशि का प्रयोग करके, इस आशा से करते हैं कि शायद पुत्रवधु ही सीता सदृश मिल जाए, परन्तु कुछ समय पश्चात ही उनका यह भ्रम भी टूट जाता है।

समय के व्यतीत होने पर ज्यादातर पुत्र व पुत्रवधु विदेश चले जाते हैं अथवा देश में ही किसी बड़े शहर में रहने लगते हैं। इस प्रकार माता-पिता के समस्त स्वप्न खण्ड-खण्ड हो जाते हैं और वे वृद्धाश्रम में चले जाते हैं। ‘कलियुगी राम’ की प्रतीक्षा में उनके अश्रु भी सूख जाते हैं।

दीपावली का पर्व प्रतिवर्ष मनाया जाता है, परन्तु ज्यादातर माता-पिता अपने ‘कलियुगी पुत्र’ के स्वागत में दीपक जलाने का साहस नहीं कर पाता है। सूखे हुए दीपक, तेल और बाती अगली दीपावली की प्रतीक्षा में अपनी चमक खो देते हैं और उनकी प्रतीक्षा कभी समाप्त ही नहीं हो पाती है। माता-पिता वृद्धावस्था के अंतिम मोड़ पर दान में प्राप्त भोजन पर जीवन यापन करने के लिए विवश हो जाते हैं। ‘कलियुगी राम’ की एक आवाज की प्रतीक्षा में वे सुबह से शाम और शाम से सुबह तक फोन या द्वार पर टकटकी लगाए रह जाते हैं।

समय के साथ-साथ हाथ-पैरों की शक्ति भी अत्यंत क्षीण होती जाती है और शीघ्र ही शरीर चारपाई भी पकड़ लेता है। ऐसी अवस्था में औषधि देने वाला भी कोई निकट नहीं होता है और एक दिन कलियुगी राम की प्रतीक्षा में नेत्र बंद हो जाते हैं और आश्रम संचालक अथवा किसी दान दाता के सहयोग से उनका अंतिम संस्कार हो जाता है। इस प्रकार उनका सम्पूर्ण जीवन एक इतिहास बन जाता है, परन्तु कलियुगी राम अस्थियां एकत्र करने भी नहीं आता।

अब मन में जिज्ञासावश एक प्रश्न उठता है कि हम कब तक लाखों दीपक त्रेतायुगी राम के लिए प्रज्ज्वलित करते रहेंगे, जिन्हें हमने कभी नहीं देखा है। हे ईश्वर ऐसा आशीर्वाद प्रदान करें कि जीवन में प्रतिवर्ष कितने ही दीये क्यों न जलाने पड़े, परन्तु कलियुग में भी त्रेता युग सदृश राम की भावना से युक्त संतान माता-पिता को प्राप्त हो। यदि ऐसा हुआ तो हमारा देश स्वर्ग बन जाएगा। देश से घृणा, परस्पर वैमनस्य, भ्रष्टाचार आदि बुराइयां समाप्त हो जाएंगी और देश पुनः सोने की चिड़िया बन जाएगा।

हे श्रीराम...! एक बार पुनः फिर किसी माता कौशल्या की गोद में आकर बस जाओ, यही हम समस्त भारतवासियों की आपसे करबद्ध प्रार्थना है।

(लेखक आईआईएमटी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं और यहां व्यक्त विचार उनके स्वयं के हैं।)

Related Items

  1. बिना बिल्वपत्र भगवान शिव की पूजा है अधूरी...

  1. यहां प्रकृति प्रतिदिन बूंद-बूंद करती है भगवान शिव का अभिषेक...

  1. संगीत से जुड़ी सभी कलाओं में निपुण थे भगवान श्रीकृष्ण



Mediabharti