कृष्ण और राम के मानवरूप में अवतरित होने के निहितार्थ

कृष्ण और राम के जीवन चरित्र का यदि हम गहनता से अध्ययन करें तो हमारे सामने इन दोनों दैवीय शक्तियों के मानव रूप में अवतरित होने के पृथक उद्देश्यों तथा उनमें निहित गहरे रहस्यों का अनावरण होता है।

कृष्ण ने माता देवकी के गर्भ से जन्म लेकर शैशवास्था से ही ईश्वरीय शक्तियों के दर्शन कराने शुरू कर दिए। उनके जन्म लेने के पश्चात पिता वसुदेव ने नवजात शिशु के जीवन रक्षार्थ गोकुल की ओर प्रस्थान किया। भगवान कृष्ण की दैवीय शक्ति से वसुदेव के मार्ग में उत्पन्न समस्त बाधाएं स्वतः ही दूर होती चली गईं, यथा- कारागार के ताले स्वतः ही खुल गए, सुरक्षाकर्मी गहन निद्रा में चले गए, यमुना की बाढ़ भी शांत हो गई और वे सुरक्षित गोकुल पहुंच गए। तत्पश्चात, उसी रात्रि को ही जन्म लेने वाली नन्दबाबा की पुत्री को लेकर पुनः कारागार में आ गए।

श्रीकृष्ण ने 11 वर्ष की अल्पायु में राक्षसराज कंस का वध करने से पूर्व ताड़का, पूतना, शकटासुर, कालिया व नरकासुर आदि का वध करके अपनी दैवीय शक्तियों को प्रमाणित कर दिया। श्रीकृष्ण ने बाल क्रीड़ाओं के दौरान चार वर्ष की अल्पायु में ही माता यशोदा को अपने मुख में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के दर्शन करा दिए। आठ वर्ष की आयु में उन्होंने वृहद गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठ अंगुली पर उठाकर देवराज इन्द्र का घमंड भी चूर-चूर कर दिया। जब उद्धव कृष्ण को गोकुल से मथुरा वापस ले जा रहे थे तो सम्पूर्ण गोकुलवासियों ने अपने प्रिय कृष्ण को अश्रुपूर्ण नेत्रों से विदा किया। मथुरा में राक्षसराज कंस ने अपने दोनों विशाल मदिरापान किए हुए हाथियों को 11 वर्ष के अबोध बालक कृष्ण का वध करने के लिए छोड़ दिया। परन्तु, उन्होंने दोनो हाथियों को उठाकर बहुत दूर फेंक दिया और महाबलशाली कंस का वध भी बिना किसी अस्त्र-शस्त्र की सहायता के सहजता से ही कर दिया। तत्पश्चात, अपने नाना उग्रसेन को पुनः राजगद्दी पर आसीन होने का अवसर प्रदान दिया।

महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण की महत्वपूर्ण भूमिका सर्वविदित है। परन्तु, उस युद्ध के मध्य अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण के द्वारा दिया गया गीता का उपदेश सम्पूर्ण विश्व के लिए आज भी प्रसांगिक है। युद्धस्थल पर अर्जुन को अपने विराट स्वरूप के दर्शन कराकर उन्होंने समस्त विश्व में स्वयं के ईश्वर होने का प्रमाण दिया।

कृष्ण के विपरीत, मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने माता कौशल्या के गर्भ से जन्म लिया लेकिन उन्होंने शिव धनुष को तोड़ने से पहले अपनी कोई भी दिव्य शक्ति प्रकट नहीं की। सीता स्वयंवर के अवसर पर जिस शिव धनुष को कोई भी राजा हिलाने तक में समर्थ नहीं था उसको श्रीराम ने सहजता से उठाकर खंडित कर दिया और सीता के साथ उनका पाणिग्रहण संस्कार हुआ। राज्याभिषेक के अवसर पर मातृ-पितृ भक्त श्रीराम ने अपने पिता के आदेशों को सर्वोपरी मानते हुए, अपनी धर्मपत्नी सीता तथा भाई लक्ष्मण के साथ 14 वर्ष के कठोर वनवास को सहर्ष स्वीकार किया।

लंकापति रावण द्वारा सीताहरण के पश्चात भगवान श्रीराम को वनवास के समय हनुमान मिले और उनकी सुग्रीव से मित्रता कराकर उन्हीं के बड़े भ्राता रावण से भी अधिक शक्तिशाली बाली का संहार कर मित्रता का धर्म निभाया। यह श्रीराम की कृपा का ही परिणाम था कि लक्ष्मण के मूर्छित होने पर उनको चेतना में लाने के लिए हनुमान संजीवनी बूटी औषधि से भरे सम्पूर्ण पर्वत को ही उठा लाए। हनुमान द्वारा सोने की लंका का दहन किया जाना भी भगवान श्रीराम के प्रति उनकी भक्ति का ही चमत्कार था। युद्ध के समय अहिरावण राम और लक्ष्मण का अपहरण कर उन्हें पाताल लोक में ले गया, वहां भी श्रीराम की कृपा से हनुमान ने अपना पंचमुखी स्वरूप धारण कर अहिरावण का वध किया और दोनों को सुरक्षित पुनः युद्धस्थल पर ले आए।

इससे पहले, श्रीराम की कृपा से ही नल तथा नील ने समुद्र के ऊपर पुल का निर्माण करके लंका पर चढ़ाई की। यह युद्ध 58 दिन तक चला और अन्त में श्रीराम ने रावण की नाभि में रखे हुए अमृत को दैवीय शक्ति से युक्त बाण से भस्म कर राक्षसराज रावण का वध किया।

पूरे 14 वर्ष का वनवास समाप्त होने के पश्चात पुनः अयोध्या आने पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने एक साधारण धोबी के कटाक्ष पर पत्नी सीता का त्याग करके अपने राजधर्म की मर्यादा का पालन किया और अपनी पत्नी तथा पुत्रों के विछोह का दुख भी जीवनपर्यन्त सहन किया। अन्त समय में उन्होंने सरयु नदी में जल समाधि लेकर मर्यादा पुरुषोत्तम होने का सम्मान प्राप्त किया।

(लेखक आईआईएमटी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं। यहां प्रस्तुत विचार उनके स्वयं के हैं)

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