सौभरि ऋषि का उल्लेख श्रीमद्भागवतम् के नवें स्कंध के छठवें अध्याय में आता है। एक बार सौभरि ऋषि यमुना नदी के जल में प्रवेश कर कठोर तपस्या कर रहे थे। वहां एक महामत्स्य को अपने परिवार के साथ खुशहाल जीवन बिताते देख उनके मन में भी गृहस्थ जीवन बिताने की उत्कंठा जागृत हो गई।
किसी राजकुमारी को वर के रूप में पाने की इच्छा से तथा तत्कालीन राजा मान्धाता की अनेक पुत्रियों के बारे में जानकर वह उनके पास गए तथा उनकी पुत्रियों में से किसी एक को उनकी वधू बनाने की प्रार्थना की।
उस समय ऋषि बहुत वृद्ध हो चुके थे। उनका शरीर कांपता रहता था तथा कठिन तपस्या के कारण वह बहुत दुबले भी हो गए थे। फिर भी ऋषि के शाप के भय से राजा ने उनसे अपने महल में जाकर अपनी पुत्रियों में से किसी एक को चुनने को कहा। एक सेवक ऋषि को महल में ले गया।
यह जानकर कि राजा उनकी वृद्धावस्था के कारण उनसे प्रसन्न नहीं हैं, ऋषि ने तुरन्त ही ऐसा दिव्य रूप धारण कर लिया, जिससे देवता भी आकर्षित हो जाएं। उस सुन्दर दिव्य पुरुष को देखकर राजा की सभी पचास पुत्रियां उन पर मोहित हो गईं तथा उनसे विवाह करने की इच्छा करने लगीं।
ऐसे में सभी पचास कन्याओं से विवाह करके ऋषि उन्हें अपने आश्रम में ले आए तथा अपनी तपस्या से प्राप्त चमत्कारी शक्तियों से वहीं पर एक भव्य दिव्य महल बना दिया। सौभरि उनके साथ भोग-विलास में इतने मग्न हो गए कि उन्हें दिन-रात का भी पता नहीं चला। उन्होंने अपनी पत्नियों से हजारों सुन्दर पुत्रों को जन्म दिया।
ब्रह्मा पौत्र महर्षि घोर के पौत्र ऋषि सौभरि मंत्रद्रष्टा महर्षि कण्व के पुत्र थे। सदैव तपस्या में लीन रहने वाले ऋषि कण्व का रमणीक आश्रम था जहां शिष्यों की शिक्षा-दीक्षा अनवरत चलती रहती थी। उस काल में वृत्तासुर का आतंक संत-महात्माओं के लिए कष्टदायक बना हुआ था। उसने इन्द्र से इन्द्रासन बलपूर्वक छीन लिया था। वृत्तासुर को भस्म करने के लिए इन्द्र ने महर्षि दधीचि से प्रार्थना की तथा उनकी अस्थियां प्राप्त कर वज्र बनाया और वृत्तासुर को मार दिया। वृत्तासुर के भस्म होने के बाद वज्र सृष्टि को भी अपने तेज से जलाने लगा। इस समाचार को नारद ने भगवान विष्णु से कहा और सृष्टि की रक्षा के लिए निवेदन किया।
भगवान विष्णु ने नारद को बताया कि जहां एक ओर वज्र में नष्ट करने की शक्ति है, तो दूसरी ओर सृजन करने की विलक्षण क्षमता भी है। विष्णु ने नारद से भूमण्डल पर महर्षि दधीचि के समकक्ष किसी तपस्वी ऋषि का नाम बताने को कहा। नारद ने महर्षि कण्व की प्रशंसा करते हुए उन्हीं का नाम इस कार्य के लिए प्रस्तावित किया। भगवान विष्णु महर्षि कण्व के आश्रम पर पहुंचे और वज्र के तेज को ग्रहण करने का आग्रह किया।
ऋषि कण्व ने सृष्टि के कल्याण के लिए उस तेज को ग्रहण करना स्वीकार किया। विष्णु भगवान ने उन्हें बताया कि वज्र का तेज संहारक के साथ-साथ गर्भोत्पादक भी है। इसके चलते, कुछ दिन बाद ऋषि पत्नी गर्भवती हुई और पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। यही पुत्र आगे चलकर महर्षि सौभरि हुए।
महर्षि सौभरि सृष्टि के आदि महामान्य महर्षियों में से एक हैं। ऋग्वेद की विनियोग परंपरा तथा आर्षानुक्रमणी से पता चलता है कि ब्रह्मा से अंगिरा, अंगिरा से घोर, घोर से कण्व और कण्व से सौभरि पैदा हुए। मान्यता है कि फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को उन्होंने जन्म लिया। महर्षि सौभरि ने वृन्दावन के सुनरख वन स्थित बृज के कालीदह में समाधिस्थ होकर तपस्या की। महर्षि का तप स्थल आज भी एक टीले के रूप में मौजूद है, जहां मंदिर में महर्षि सौभरि की पूजा होती है।
वृन्दावन से दो किमी की दूरी पर बसे इस पौराणिक गांव को सुनरख बांगर के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर लगातार रास-सत्संग आदि होते-रहते हैं। कालिय नाग और गरुड़ की कथा इसी स्थान की प्रासंगिक घटना है।
कालिया नाग कद्रू का पुत्र और पन्नग जाति का नागराज था। वह पहले रमण द्वीप में निवास करता था, किंतु पक्षीराज गरुड़ से शत्रुता हो जाने के कारण वह यमुना नदी में एक कुण्ड में आकर रहने लगा। यमुना का यह कुण्ड गरुड़ के लिए अगम्य था, क्योंकि इसी स्थान पर एक दिन क्षुधातुर गरुड़ ने तपस्वी सौभरि के मना करने पर भी अपने अभीष्ट मत्स्य को बलपूर्वक पकड़कर खा डाला था। इससे कुपित होकर महर्षि सौभरि ने गरुड़ को शाप दिया कि यदि गरुड़ फिर कभी इस कुण्ड में घुसकर मछलियों को खेंगे तो उसी क्षण प्राणों से हाथ धो बैठेंगे। कालिया नाग यह बात जानता था। इसलिए वह महर्षि की शरण में आ गया। सौभरि ने कालिय नाग के अलावा अन्य जीवों को भी गरुड़ से सुरक्षित इसी स्थान पर रखा।
यह वही कालिय नाग था जिसके फन पर भगवान योगेश्वर श्री कृष्ण ने नृत्य किया था। मुनिवर ने सभी को आश्वस्त किया तथा मछली एवं अहिभक्षी गरुड को शाप दिया कि यदि उनके सुनरख स्थित क्षेत्र में पद रखा तो भस्म हो जाएगा। इस क्षेत्र को महर्षि ने अहिवास क्षेत्र घोषित कर दिया। तभी से महर्षि सौभरि अहि को वास देने के कारण ‘अहिवासी’ कहलाए। इस प्रकार उस स्थल पर सभी जीव जन्तु शान्ति पूर्वक निवास करते रहे।
खुदाई के दौरान यहां प्राचीन रामताल मिला है, जो 2500 वर्ष से भी अधिक पुराना है। इसकी दीवारें तालाब के चारों ओर देखी जा सकती हैं। साथ ही, उत्तर भारत के इतिहास में पहली बार, रामताल की प्राचीन दीवारों के नीचे डेढ़ इंच मोटी लोहे की चादर की खोज की गई थी। इस अनूठी खोज ने कई पुरातत्वविदों को इस स्थान की ओर आकर्षित किया।
कई वर्षों तक ऋषि सौभरि अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते रहे। कुछ समय बाद वह सोचने लगे कि उनकी इच्छाओं के मनोरथ का विस्तार होता जा रहा है। यह सोचकर फिर से उन्हें वैराग्य होने लगा। एक दिन महर्षि को लगा कि उनका काम पूरा हो गया है और सभी पत्नियों एवं परिवार को पुन: तपस्या की ओर बढ़ने की इच्छा बताई।
उन्होंने गृहस्थ-जीवन के सुख को भी देखा था और तपस्या के समय की शांति और संतोष को भी। ऋषि पत्नियों ने भी महर्षि के साथ ही तपस्या में सहयोग करने का आग्रह किया। तपस्या में लीन हो प्रभु दर्शन कर समाधिस्थ हो गए। इस प्रकार वह पुत्र मोह व गृहस्थ सब कुछ त्याग कर अपनी स्त्रियों सहित वन की ओर गमन कर गए। बाद में, भगवान में आशक्त होकर उन्होंने मोक्ष को प्राप्त किया।
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