भारतीय ज्ञान, परंपरा, सभ्यता और संस्कार के कारण ही पूरी दुनिया में भारत की एक अलग पहचान बनी हुई है। यह देश हमेशा ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के आदर्श का अनुयायी रहा है और यहां पग-पग पर धर्मसम्मत आदर्शो की चर्चा की जाती रही है।
विगत तीन वर्षों में भारत की धर्म के प्रति आस्था का यदि आंकलन करें तो देश के प्रत्येक मंदिर में दर्शनार्थियों की अतिशय भीड़ का एकत्र होना़, धार्मिक कथा आयोजनों में ज्ञान की गंगा का अविरल प्रवाह होना, प्रयागराज के महाकुंभ में अपार जनसमूह द्वारा अपने पापों से मुक्ति के लिए स्नान किया जाना, भक्तजनों द्वारा शंकराचार्य एवं महामंडलेश्वरों के आश्रम में उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए पंक्तिबद्ध होकर प्रतीक्षारत रहना आदि आस्था के अनेक उदाहरण हमारे जममानस में दिखते हैं।
भारतीयों के इतना अधिक श्रद्धा वशीभूत होने के बावजूद भी हमारे समाज में हिंसा, भ्रष्टाचार व व्याभिचार के समाचार नित-प्रतिदिन सुनने को मिल रहे हैं। इसके अतिरिक्त ऐसी वीभत्स हिंसा की घटनाएं देखने और सुनने को मिल रहीं हैं, जो न कभी सोची थी और न ही कभी ऐसा घटित होने की आशंका व्यक्त की जा सकती थी।
इन्हीं असामाजिक घटनाओं पर यदि दृष्टिपात करें तो आज रक्त संबंधों की मर्यादा भी समाप्त होती नजर आ रही है। पश्चिमी चकाचौंध के वशीभूत होकर कई पुत्र अपने माता-पिता को उनकी वृद्धावस्था में भारस्वरूप समझने लगते हैं। इतना ही नहीं, उनकी संपत्ति को हड़पने के पश्चात, उनको वृद्धाश्रम में रहने के लिए विवश भी करते हैं। जो माता-पिता अपनी संपत्ति को अपनी वृद्धावस्था के लिए संचित करते हैं, कई बार उनके कुपुत्र अनैतिकता की हद को पार करते हुए, उनसे बदतमीजी करने, उनपर अपना हाथ उठाने और उनकी हत्या करने में भी तनिक संकोच नहीं करते हैं। भारत के वृद्धाश्रम, ऐसे निरीह, असहाय वृद्धजनों से भरे पड़े हैं।
भारतीय समाज में विवाह एक ऐसा पवित्र बंधन माना जाता है जो सात जन्मों तक निभाने का वचन देकर, ईश्वर व परिवार के वरिष्ठजनों के आशीर्वाद के साथ पूर्ण होता है। पूर्व में विवाह अधिकांशतया माता-पिता की इच्छा से ही होते थे। जो प्रेम विवाह भी होते थे, वे भी परस्पर विश्वास, प्रेम व समर्पण की नींव पर होते थे। परन्तु, आज समाज पूर्णतया दिगभ्रमित होता नजर आ रहा है। कई बार, आज का प्रेम मात्र एक क्षणभंगुर आकर्षण स्वरूप नजर आता है, जो जितनी जल्दी शुरू होता है, उतनी ही जल्दी समाप्त भी हो जाता है। तत्पश्चात लिए गए निर्णय पछतावा अथवा प्रतिशोध में परिवर्तित हो जाते हैं।
माता-पिता अपनी संतान के उच्च भविष्य की कामना करते हुए, स्वयं के अथवा परिपक्व संतान की इच्छा से लिए गए निर्णय को स्वीकार करके विवाह करते हैं। परन्तु, कुछ बेटा-बेटी विवाह से पूर्व ही विवाहेत्तर संबंध स्थापित करने के पश्चात विवाह करते हैं, जिसका संज्ञान विवाह के पश्चात होने पर, वैवाहिक जीवन पूर्णतया नरक सदृश हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि विवाहित युगल एक साथ रहने के बजाय अपने पूर्व प्रेमी अथवा प्रेमिका के साथ मिलकर अपने वैवाहिक जीवन को नष्ट कर देते हैं और अपने पति अथवा पत्नी की जीवन लीला को समाप्त करने के लिए हर सीमा को पार कर जाते हैं।
आज के युवा वर्ग का एक बड़ा हिस्सा प्राचीन भारतीय ज्ञान परम्परा से पूर्णतया अज्ञान है। इसलिए, वह समाज में व्याप्त आकर्षण के साधनों को सुलभ व सर्वज्ञान का स्रोत मानकर दिग्भ्रमित होता जा रहा है और उसका अंधानुकरण कर रहा है। इसीलिए, आज छात्रों द्वारा आत्महत्या करने की घटनाएं नित-प्रतिदिन सुनने को मिलती है। इसके कई कारण हैं। इनमें छात्रों का युवावस्था में प्रेम जाल में फंसना, प्रेम में असफल होने के परिणामस्वरूप पढ़ाई से विमुख हो जाना और परीक्षा में अनुर्त्तीण होने पर निराशा से भरकर आत्महत्या जैसे जघन्य अपराध करना आदि शामिल हैं। इतना ही नहीं, महाविद्यालयों में किसी कन्या के आकर्षण के वशीभूत होकर छात्र समूहों के बीच गोलियां तक चल जाती हैं।
आज युवा वर्ग का उद्देश्य, शिक्षा प्राप्ति के पश्चात येन-केन-प्रकारेण धन अर्जित करना हो गया है। देशहित, समाजहित, परिवारहित की भावना समाप्तप्राय हो गई है। इससे देश में भ्रष्टाचार चरमसीमा पर पहुंच गया है। इतना ही नहीं, आज देश की राजनीति भी देशसेवा के भाव के विपरीत धन अर्जित करने का पर्याय बन चुकी है।
माता-पिता के पश्चात गुरु को गोविन्द से भी श्रेष्ठ स्थान दिया गया है, क्योंकि गुरु ही ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करता है। गुरु का पर्याय शिक्षक, संतजन अथवा अन्य कोई वरिष्ठजन हो सकता है। आज समाज में संतो के प्रवचनों को सुनने के लिए अथाह जन समूह एकत्र होता है। इनमें से अधिकांश पीड़ित माता-पिता होते हैं। परन्तु, उन संतजनों में से अधिकांश संत समाज, आज धन के पीछे भाग रहा है। वे कथाएं एवं प्रवचन तो देते हैं, लेकिन एक कथा के 50 लाख से एक करोड़ रुपये तक की धनराशि भी निर्धारित करते हैं। आशीर्वाद देने के भी पांच लाख रुपये तक लेते हैं। संतों को अपनी वाणी को ईश्वर की वाणी मानकर प्रवचन देना होगा। लोभ को त्यागना होगा। देशसेवा के भाव के साथ युवा वर्ग की दिग्भ्रमित मानसिकता को सुधारने का प्रयास करना होगा। यही उनकी वास्तविक देशसेवा तथा ईश्वरीय भक्ति होगी, इसके बिना उनको भी स्वर्ग प्राप्त नहीं होगा।
जिस देश का कर्णधार युवा वर्ग यदि सत्मार्ग तथा सद्बुद्धि प्राप्त कर लेता है तो उस देश के भ्रष्टाचार का समूल नष्ट तथा राजनीति का शुद्धिकरण अवश्य ही हो जाएगा, जिसकी आज हमारे समाज तथा राष्ट्र को नितांत आवश्यकता है।
(लेखक आईआईएमटी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं। यहां व्यक्त विचार उनके स्वयं के हैं।)
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