देश

कश्मीर की खूबसूरत घाटियों में, जहां की फिज़ा, मोहब्बत और भाई चारे की कहानियां सुनाती हैं, वहां पिछले दिनों एक दर्दनाक हादसा हुआ जिसका अंजाम ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के रूप में लोगों ने देखा। अब भारतवंशियों ने एक मांग की है, पहलगाम में मां सिंदूरी को समर्पित एक भव्य मंदिर का निर्माण हो।

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दस साल पहले सत्ता के गलियारों में बड़े ठाठ से घोषणाएं हुई थीं — गंगा नदी को निर्मल बनाएंगे, भारत को स्वच्छ करेंगे, और सौ शहरों को स्मार्ट बना देंगे। जनता ताली बजाती रही, उम्मीदें पालती रही। लेकिन, अब जब ज़मीनी सच्चाई से पर्दा उठ रहा है, तो लगता है कि सपने और हकीकत के बीच का फासला कम नहीं हुआ है।

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कभी भाषाई विवाद, कभी सीमा विवाद, महापुरुषों को लेकर बहस, राज्यों के अधिकारों पर खींचतान, कभी मेडिकल दाखिलों की वजह से तो कभी सेंट्रल खुफिया एजेंसियों को लेकर रस्साकसी, कुछ नहीं तो जाति, धर्म को लेकर ही अनावश्यक विवाद...! आजादी के बाद से शायद ही कोई ऐसा साल गुजरा हो जब देश में कोई बड़ा विवाद न हुआ हो।

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हाल ही में पहलगाम नरसंहार से जहां एक शांतिपूर्ण माहौल खूनी संघर्ष में बदल गया, वहीं इसने एक बार फिर भारत और पाकिस्तान के बीच की नाजुक शांति को तोड़ दिया। इस हमले ने सैन्य प्रतिशोध की तीव्र मांगों को फिर से जगा दिया है, जो राजनीतिक हलकों और सोशल मीडिया पर ज़ोरदार तरीके से गूंज रहा है। पिछले एक हफ्ते में हजारों किलो मोमबत्तियां जल के बुझ चुकी हैं। नारेबाजी से तापमान वृद्धि हो चुकी है। फिर भी, युद्ध के ढोल बजने और पूर्ण शंखनाद से पहले, राष्ट्र को रुककर परिणामों पर विचार करना चाहिए।

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पहलगाम में हुआ आतंकी हमला, पहले की तरह इस बार भी हमारे समाज और सिस्टम की एक जानी-पहचानी, खोखली प्रतिक्रिया को सामने ले आया। मोमबत्तियां जलाना, शोक सभाएं, प्रेस बयान, मानव श्रृंखलाएं, और झंडा जलाने जैसे प्रदर्शन – ये सब अब एक रस्म बन चुकी हैं। मगर सवाल यह है कि क्या यह इज़हार-ए-ग़म एक मज़बूत और समझदार मुल्क की निशानी हैं...

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22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में जो हुआ, वह सिर्फ आतंकवाद नहीं था, बल्कि भारत की आत्मा पर एक सोची-समझी चोट थी...

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