गुरु की महिमा और बृज में मुड़िया पूनौ की धूम


जीवन में गुरु का अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण स्‍थान होता है। सभी धर्मों के शास्त्रों में कहा गया है कि बिना गुरु के ईश्‍वर नहीं मिलता है। सनातन धर्म में गुरु की महिमा का बखान अलग-अलग स्‍वरूपों में किया गया है। इन्हीं सब स्वरूपों को समर्पित आषाढ़ शुक्ल की पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। इस दिन प्रत्येक व्यक्ति विशेष द्वारा अपने गुरु की पूजा का विधान होता है।

शास्त्रों में ‘गु’ का अर्थ बताया गया है, ‘अंधकार’ और ‘रु’ का का अर्थ है, ‘निरोधक’। अत: वह गुरु ही है जो अपने शिष्य को अंधकार से हटाकर प्रकाश की ओर ले जाता है। भारत में यह परंपरा प्राचीन काल से ही रही है। भारतीय संस्कृति में गुरु को देवतातुल्य माना गया है। गुरु को हमेशा से ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान पूज्यनीय माना जाता है। वेद, उपनिषद और पुराणों का प्रणयन करने वाले वेद व्यास को समस्त मानव जाति का ‘प्रथम गुरु’ माना जाता है। महर्षि वेदव्यास का जन्म इसी दिन हुआ था। उनके सम्मान में ही हर वर्ष गुरु पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। इस दिन को ‘व्यास पूर्णिमा’ के नाम से भी जाना जाता है। इसी दिन, वेद व्यास के अनेक शिष्यों में से पांच शिष्यों ने गुरु पूजा की परंपरा प्रारंभ की।

गुरु पूर्णिमा पर्व को वर्षा ऋतु में मनाने के पीछे भी एक कारण है। वर्षा के इन चार माह में न अधिक गर्मी होती है और न ही अधिक सर्दी। यह समय अध्ययन और अध्यापन के लिए सर्वश्रेष्ठ है। इन दिनों को गुरु चरणों में उपस्थित होकर शिष्य द्वारा ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति को प्राप्त करने के लिए सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

ब्रज क्षेत्र में गुरु पूर्णिमा के पर्व को ‘मुड़िया पूनौ’ के रूप में मनाया जाता है। इस दिन बड़ी संख्या में, देश के विभिन्न अंचलों से भक्तगण एक बहुत बड़ी संख्या में यहां पहुंचते हैं। बृज में गुरु पूर्णिमा पर्व का यह नाम क्यों पड़ा, इसके पीछे भी एक कहानी है।

चैतन्य महाप्रभु के संप्रदाय के शिष्य आचार्य सनातन गोस्वामी का निधन हो जाने के पश्चात उनके शिष्यों ने शोक में अपने सिर मुड़वाकर कीर्तन करते हुए मानसी गंगा की परिक्रमा की थी। मुड़े हुए सिरों के कारण शिष्य साधुओं को ‘मुड़िया’ कहा गया और चूंकि उस दिन गुरु पूर्णिमा का दिन था, इसलिए इसे ‘मुड़िया पूनौं’ कहा जाने लगा।

सनातन गोस्वामी और उनके भाई रूप गोस्वामी गौड़ तत्कालीन बंगाल के शासक हुसैन शाह के दरबार में मंत्री थे। चैतन्य महाप्रभु के सिद्धांतों से प्रभावित होकर वे दोनों मंत्री पद छोड़कर महाप्रभु के आदेश पर वृन्दावन आ गए और यहां उन्होंने चैतन्य महाप्रभु से दीक्षा प्राप्त की और उनके शिष्य बन गए। चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें यह आदेश दिया कि वे श्रीकृष्ण के समय के तीर्थ स्थलों की खोज करें और उनके प्राचीन स्वरूप को प्रदान करें। साथ ही, श्रीकृष्ण की भक्ति का प्रचार-प्रसार करें। महाप्रभु के आदेशानुसार दोनों भाइयों ने बृज का विस्तृत भ्रमण कर भगवान श्रीकृष्ण की लीला स्थलियों की खोज करके उन्हें पुनर्जीवित किया।

सनातन गोस्वामी के निधन पर उनके शिष्यों ने सिर मुड़वाकर चकलेश्वर मंदिर से शोभायात्रा निकाली। उसी परम्परा का पालन आज भी उनके शिष्यों व अनुयायियों द्वारा प्रत्येक वर्ष किया जाता है। अब यह विशाल मेले का रूप ले चुका है। इस दिन यहां मंदिर के सामने मौजूद सनातन गोस्वामी की समाधिस्थल पर अधिवास व संकीर्तन का आयोजन किया जाता है। इसके पश्चात शाम के समय एक शोभायात्रा निकाली जाती है। इसी दिन, एक अन्य शोभायात्रा सुबह के समय राधा-श्याम सुन्दर मंदिर से भी निकाली जाती है।

इस मौके पर बृज क्षेत्र में हर मंदिर और आश्रम में लोग अपने-अपने गुरु की पूजा-अर्चना करने पहुंचते हैं। जगह-जगह भंडारे लगते हैं, जहां श्रृद्धालु प्रसाद ग्रहण करते हैं और पूर्ण भक्ति भाव और आस्था के साथ अपने-अपने गुरु से आशीर्वाद ग्रहण करते हैं। कुछ लोग इस दिन को पवित्र मानकर अपने जीवन को सफल व पूर्व जन्म के कर्मफलों को सुधारने व भगवत प्राप्ति का मार्ग पाने के लिए गुरु बनाते है। गुरु को उपहारस्वरूप फल, वस्त्र आदि भेंट करते हैं।



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