हर महान व्यक्ति के पीछे कई व्यक्तियों का समर्पण होता है। दूसरे शब्दों में, ऐसे विरले ही होते हैं, जो किसी को महान बनाने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन झोंक देते हैं। ऐसा ही एक नाम है जेजे गुडविन का…। स्वामी विवेकानंद के विचारों को पूरी दुनिया में फैलाने का श्रेय गुडविन को जाता है।
गुडविन का जन्म 20 सितंबर 1870 को इंग्लैंड के बाथएस्टन में हुआ था। उनके पिता जोशिया गुडविन एक स्टेनोग्राफर और 'द विल्ट्स कंट्री मिरर' और 'एक्सटरेट गजट' जैसी पत्रिकाओं के संपादक थे। गुडविन ने 14 साल की उम्र से एक पत्रकार के रूप में काम किया और साल 1893 में एक पत्रकारिता उद्यम स्थापित करने का असफल प्रयास किया। इसके बाद उन्होंने बाथ छोड़ दिया और ऑस्ट्रेलिया की यात्रा की, फिर बाद में अमेरिका चले गए। चूंकि, वह शॉर्ट हैंड जानते थे तो इसी के सहारे इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में टाइपिस्ट के रूप में रहकर अपनी जीविका कमाते थे। वह क्रिकेट, फुटबॉल और जुआ खेलना भी पसंद करते थे। जुआ खेलने के कारण ही विवेकानंद, गुडविन को कभी-कभी मजाक में ‘बेडविन’ पुकारते थे।
जब 1893 में स्वामी विवेकानंद अमेरिका के ऐतिहासिक दौरे पर गए थे, तब वहां उन्हें शिकागो धर्म सम्मेलन के बाद कई स्थानों पर व्याख्यान देने थे। विवेकानंद के अनुयायियों की इच्छा थी कि कोई स्टेनोग्राफर इन व्याख्यानों को रिकॉर्ड करे। समस्या यह थी कि विवेकानंद, जिस प्रवाह के साथ बोलते थे, उस रफ्तार से रिकॉर्ड कर पाने वाला स्टेनो मिल नहीं रहा था। विवेकानंद के मित्रों ने अखबार में विज्ञापन निकाला। न्यूयॉर्क के अखबारों में 25 साल के गुडविन ने जब यह विज्ञापन देखा कि वेदांत सोसाइटी स्वामी विवेकानंद के व्याख्यानों को नोट करने के लिए एक स्टेनोग्राफर चाहती है। जॉन जोशिया गुडविन को यह कला अपने पिता जोशिया से विरासत में मिली थी और वह तेजी से बातें रिकॉर्ड व टाइप कर सकते थे। इस विज्ञापन के जरिये तब एक कोर्ट में पत्रकार के तौर पर काम कर रहे गुडविन स्वामी विवेकानंद के संपर्क में आए। हालांकि, उस वक्त गुडविन बहुत महंगे पड़े थे, लेकिन अब इतिहास है कि गुडविन नहीं होते तो विवेकानंद के बोले हुए ज्यादातर शब्द आज हमारे पास न होते।
विवेकानंद की व्यस्ततम दिनचर्या के बीच गुडविन एक मेहनती कामगार थे। व्याख्यान को सुनने के बाद, वह उन्हें टाइप करते थे और पांडुलिपि को अखबारों को सौंप देते थे। अगले दिन उसी काम के लिए फिर से तैयार हो जाते थे। गुडविन को न्यूयॉर्क के वेदांत सोसायटी द्वारा नियुक्त किया गया था और उन्होंने समय बचाने के लिए विवेकानंद के होटल की सड़क के पार एक कमरा किराए पर ले लिया था। 9 दिसंबर से 23 दिसंबर के बीच के हफ्तों में विवेकानंद ने कम से कम 20 व्याख्यान दिए। इन सभी व्याख्यानों को गुडविन ने कागज पर उतारा।
गुडविन एक बार विवेकानंद से क्या जुड़े, वह हमेशा के लिए उनसे बंधकर रह गए। सिर्फ अमेरिका ही नहीं, उसके बाद विवेकानंद दुनिया में जहां भी गए, गुडविन उनके साथ बने रहे। अमेरिकी लेखक और विवेकानंद की मशहूर अनुयायी सारा बुल ने गुडविन को विवेकानंद का सबसे अहम सहयोगी बताया था। अमेरिका के बाद साल 1896 में विवेकानंद के इंग्लैंड के दौरे पर भी गुडविन साथ रहे। आखिर में विवेकानंद के साथ भारत पहुंचे वह गुडविन ही थे, जिन्होंने दुनिया को यह रिपोर्ट दी थी कि भारत में कितने उत्साह के साथ विवेकानंद का स्वागत सत्कार किया गया।
विवेकानंद जब कलकत्ता पहुंचे थे, तब मशहूर बंगाली लेखक शरतचंद्र ने भी उनसे मुलाकात की थी। बाद में शरतचंद्र ने जब 'एक अनुयायी की डायरी' लिखी, तब उसमें उन्होंने गुडविन का जिक्र भी किया। साल 1897 में कोलंबो से अल्मोड़ा तक विवेकानंद के व्याख्यानों को शॉर्ट हैंड में रिकॉर्ड करते हुए गुडविन मद्रास पहुंचकर अंत में ब्रह्मचारी बन गए।
साल 1897 में स्वामी विवेकानंद दुनिया के कई हिस्सों में भ्रमण करने के बाद भारत पहुंचे थे। कई अनुयायियों के साथ गुडविन भी उनके साथ मद्रास पहुंचे थे। कुछ समय उत्तर भारत में विवेकानंद के साथ घूमने के बाद मद्रास लौटकर गर्मी से परेशान हो गए गुडविन ने ऊंटी जाकर रहना ठीक समझा। मद्रास की गर्मी न झेल पाए गुडविन की सेहत ऊंटी जाकर भी नहीं संभली। बीमार रहते हुए उन्होंने 2 जून 1898 को सिर्फ 27 साल की उम्र में दम तोड़ दिया। बताते हैं कि जनवरी 1898 के बाद गुडविन और विवेकानंद की भेंट कभी नहीं हो सकी। उनकी मौत पर विवेकानंद ने कहा था, “उसका ऋण मैं कभी चुका नहीं सकूंगा। अगर किसी को ऐसा लगता है कि मेरे किसी शब्द से उसे कोई मदद मिली है, तो मैं बता दूं कि उसके पीछे गुडविन की अनथक और नि:स्वार्थ मेहनत ही रही।”
गुडविन को आज स्वामी विवेकानंद के शिष्य के रूप में याद किया जाता है। गुडविन पर विवेकानंद ने एक बार कहा था, ‘वह मेरे काम के लिए चुना गया है। मैं उसके बिना क्या करता! अगर मेरे पास एक मिशन है, तो वह वास्तव में इसका एक हिस्सा है।’
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