कंस की रंगशाला में आज भी मौजूद हैं श्री रंगेश्वर महादेव


मथुरा के दक्षिण में भगवान शिव श्री रंगेश्वर महादेव के रूप में अवस्थित हैं। माना जाता है कि कंस ने श्री कृष्ण और बलदेव को मारने का षड्यंत्र रचकर इसी तीर्थ स्थान पर एक रंगशाला का निर्माण कराया था।

प्रचलित कथा के अनुसार, अक्रूर द्वारा वृंदावन से श्री कृष्ण–बलदेव को मथुरा लाए जाने के उपरांत दोनों भाई नगर भ्रमण के बहाने ग्वालबालों के साथ लोगों से पूछते–पूछते इस रंगशाला में प्रविष्ट हुए थे। रंगशाला बहुत ही सुन्दर तरीके से सजाई गई थी। सुन्दर-सुन्दर तोरण-द्वार पुष्पों से सुसज्जित थे। सामने भगवान शंकर का विशाल धनुष रखा गया था। मुख्य प्रवेश द्वार पर मतवाला कुबलयापीड हाथी झूमते हुए, इशारा पाने की प्रतीक्षा कर रहा था, जो दोनों भाइयों को मारने के लिए भली भांति प्रशिक्षित किया गया था।

धनुर्यज्ञ में जहां शिव का दिव्य धनुष रखा था, वहां रंगेश्वर महादेव की छटा भी निराली थी। उन्हें विभिन्न प्रकार से सुसज्जित किया गया था। रंगशाला के अखाड़े में चाणुर, मुष्टिक, शल, तोषल आदि बड़े-बड़े भयंकर पहलवान दंगल के लिए प्रस्तुत थे। महाराज कंस अपने बड़े-बड़े नागरिकों तथा मित्रों के साथ उच्च मंच पर विराजमान था। रंगशाला में प्रवेश करते ही श्री कृष्ण ने अनायास ही धनुष को अपने बाएं हाथ से उठा लिया। पलक झपकते ही सबके सामने उसकी डोरी चढ़ा दी तथा डोरी को ऐसे खींचा कि वह धनुष भयंकर शब्द करते हुए टूट गया। धनुष की रक्षा करने वाले सारे सैनिकों को दोनों भाइयों ने ही मार गिराया।

कुबलयापीड का वध कर श्री कृष्ण ने उसके दोनों दांतों को उखाड़ लिया और उससे महावत एवं अनेक दुष्टों का संहार किया। तदोपरांत, श्री कृष्ण एवं बलदेव अपने अंगों पर ख़ून के कुछ छींटे धारण किए हुए हाथी के विशाल दातों को अपने कंधे पर धारण कर सिंह के शावकों की भांति मुस्कुराते हुए अखाड़े के समीप पहुंचे। चाणूर और मुष्टिक ने दोनों भाइयों को मल्लयुद्ध के लिए ललकारा। नीति विचारक श्री कृष्ण ने अपने समान आयु वाले मल्लों से लड़ने की बात कही। किन्तु, चाणूर ने श्री कृष्ण को और मुष्टिक ने बलराम को बड़े दर्प के साथ, महाराज कंस का मनोरंजन करने के लिए ललकारा। श्री कृष्ण–बलराम तो ऐसा चाहते ही थे। इस प्रकार मल्लयुद्ध आरम्भ हो गया। श्री कृष्ण ने चाणूर और बलराम ने मुष्टिक को पछाड़कर उनका वध कर दिया। तदनन्तर कूट, शल, तोषल आदि भी मारे गए।

यह देखकर कंस ने क्रोधित होकर श्री कृष्ण–बलदेव और नन्द व वसुदेव आदि सभी को बंदी बनाने के लिए आदेश दिया। किन्तु, सबके देखते ही देखते बड़े वेग से उछलकर श्री कृष्ण उसके मंच पर पहुंच गए और उसे नीचे गिरा दिया तथा उसकी छाती के ऊपर कूद गए, जिससे उसके प्राण पखेरू उड़ गए। इस प्रकार सहज ही कंस मारा गया। श्री कृष्ण ने रंगशाला में अनुचरों के साथ कंस का उद्धार किया।

कंस के पूजित भगवान शंकर श्री कृष्ण के इस रंग को देखकर गदगद हो गए। इसलिए, यहां उनका नाम श्री रंगेश्वर हुआ। यह स्थान आज भी कृष्ण की इस रंगमयी लीला की पताका फहरा रहा है। श्रीमद्भागवत के अनुसार तथा श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद के विचार से कंस का वध शिवरात्रि के दिन हुआ था क्योंकि, कंस ने अक्रूर को एकादशी की रात अपने घर बुलाया तथा उससे मन्त्रणा की थी। द्वादशी को अक्रूर का नन्द भवन में पहुंचना हुआ, त्रयोदशी को नन्दगांव से अक्रूर के रथ में श्री कृष्ण बलराम मथुरा में आए, शाम को मथुरा नगर भ्रमण तथा धनुष यज्ञ हुआ था। दूसरे दिन अर्थात शिव चतुर्दशी के दिन कुवलयापीड़, चाणुर मुष्टिक एवं कंस का वध हुआ था।

इस स्मृति में प्रतिवर्ष यहां कार्तिक माह में देवोत्थान एकादशी से एक दिन पूर्व शुक्ला दशमी के दिन चौबे समाज की ओर से कंस वध मेले का आयोजन किया जाता है। उस दिन कंस की 25–30 फुट ऊंची मूर्ति का श्री कृष्ण के द्वारा वध प्रदर्शित होता है।



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