जब बिहार जैसे राज्यों में हाल के विधानसभा चुनावों में रोज़गार, पलायन और गांवों की जिंदगी बड़े मुद्दे बनकर उभरे, तो यह साफ़ दिखा कि मनरेगा जैसी योजनाएं सिर्फ विकास-रिपोर्ट का हिस्सा नहीं रहीं, बल्कि राजनीतिक बहस की धुरी भी बन गई हैं। राज्य की दो-तिहाई से अधिक घरों पर बाहरी मज़दूरी का निर्भरता होने के बावजूद, पलायन को रोकने वाली नीतियां मतदाताओं की प्राथमिकता बनीं। जो दल गांव की ज़मीन से कटे दिखते हैं, उन्हें नतीजों में उसकी कीमत चुकानी पड़ती है, जबकि रोज़गार और सामाजिक सुरक्षा की ठोस बात करने वाली राजनीति को नया सहारा मिलता है।
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